प्रेम मुक्तिसे भी आगेकी चीज है । मुक्तितक तो जीव रसका अनुभव करनेवाला होता
है, पर प्रेममें वह रसका दाता बन जाता है ।
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ज्ञानमार्गमें दुःख, बन्धन मिट जाता है, और स्वरूपमें
स्थिति हो जाती है, पर मिलता कुछ नहीं । परन्तु भक्तिमार्गमें प्रतिक्षण वर्धमान
प्रेम मिलता है ।
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ज्ञानके बिना प्रेम मोहमें चला जाता
है और प्रेमके बिना ज्ञान शून्यतामें चला जाता है ।
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जिसके भीतर भक्तिके संस्कार हैं और कृपाका आश्रय है, उसको
मुक्तिमें सन्तोष नहीं होता । भगवान्की कृपा उसके मुक्तिके रसको फीका करके
प्रेमका अनन्तरस प्रदान कर देती है ।
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अपने मतका आग्रह और दूसरे मतकी
उपेक्षा, खण्डन, अनादर न करनेसे मुक्तिके बाद भक्ति (प्रेम) की प्राप्ति स्वतः
होती है ।
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भोगेच्छाका अन्त होता है और मुमुक्षा अथवा जिज्ञासाकी
पूर्ति होती है, पर प्रेम-पिपासाका न तो अन्त होता है और न पूर्ति ही होती है,
प्रत्युत वह प्रतिक्षण बढ़ती ही रहती है ।
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संसारमें तो आकर्षण और विकर्षण (रुचि-अरुचि) दोनों होते
हैं, पर परमात्मामें आकर्षण-ही-आकर्षण होता है, विकर्षण होता ही नहीं, यदि होता है
तो वास्तवमें आकर्षण हुआ ही नहीं ।
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जैसे सांसारिक दृष्टिसे लोभारूप आकर्षणके
बिना धनका विशेष महत्त्व नहीं है, ऐसे ही प्रेमके बिना ज्ञानका विशेष महत्त्व नहीं
है, उसमें शून्यवाद आ सकता है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे
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