।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७५, शनिवार
शरणागति
                                                             

(३) निःशोक होनाजो बात बीत चुकी है, उसको लेकर शोक होता है । बीती हुई बातको लेकर शोक करना बड़ी भारी भूल है; क्योंकि जो हुआ है, वह अवश्यम्भावी था और जो नहीं होनेवाला है, वह कभी हो ही नहीं सकता तथा अभी जो हो रहा है, वह ठीक-ठीक (वास्तविक) होनेवाला हो हो रहा है, फिर उसमें शोक करनेकी कोई बात ही नहीं है । प्रभुके इस मंगलमय विधानको जानकार शरणागत भक्त सदा निःशोक रहता है, शोक उसके पास कभी आता ही नहीं ।

(४) निःशंक होनाभगवान्‌के सम्बन्धमें कभी यह सन्देह न करें कि मैं भगवान्‌का हुआ या नहीं ? भगवान्‌ने मुझे स्वीकार किया या नहीं ? प्रत्युत इस बातको देखें कि ‘मैं तो अनादिकालसे भगवान्‌का ही था, भगवान्‌का ही हूँ और आगे भी सदा भगवान्‌का ही रहूँगा । मैं अपनी मूर्खतासे अपनेको भगवान्‌से अलग-विमुख मान लिया था । परन्तु मैं अपनेको भगवान्‌से कितना ही अलग मान लूँ तो भी उनसे अलग हो सकता ही नहीं और होना सम्भव भी नहीं । अगर मैं भगवान्‌से अलग होना चाहूँ तो भी अलग कैसे हो सकता हूँ ? क्योंकि भगवान्‌ने कहा है कि यह जीव मेरा ही अंश है‘मम एव अंशः’ (गीता १५/७) । इस प्रकार ‘मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैं’इस वास्तविकताकी स्मृति आते ही शंकाएँ-सन्देह मिट जाते हैं, शंकाओं-सन्देहोंके लिये किंचिन्मात्र भी गुंजाइश नहीं रहती ।

(५) परीक्षा न करनाभगवान्‌के शरण होकर ऐसी परीक्षा न करें कि ‘जब मैं भगवान्‌के शरण हो गया हूँ तो मेरेमें ऐसे-ऐसे लक्षण घटने चाहिये । यदि ऐसे-ऐसे लक्षण मेरेमें नहीं हैं तो मैं भगवान्‌के शरण कहाँ हुआ ? प्रत्युत ‘अद्वेष्टा’ आदि (गीता १२/१३१९) गुणोंकी अपनेमें कमी दीखे तो आश्चर्य करे कि मेरेमें यह कमी कैसे रह गयी ! ऐसा भाव आते ही यह कमी नहीं रहेगी, कमी मिट जायगी । कारण कि यह उसका प्रत्यक्ष अनुभव है कि पहले अद्वेष्टा आदि गुण जितने कम थे, उतने कम अब नहीं हैं । शरणागत होनेपर भक्तोंके जितने भी लक्षण हैं, वे बिना प्रयत्‍न किये ही आते हैं ।

(६) विपरीत धारणा न करनाभगवान्‌के शरणागत भक्तमें यह विपरीत धारणा भी कैसे हो सकती है कि ‘मैं भगवान्‌का नहीं हूँ’ क्योंकि यह मेरे मानने अथवा न माननेपर निर्भर नहीं है । भगवान्‌का और मेरा परस्पर जो सम्बन्ध है, वह अटूट है, अखण्ड है, नित्य है, मैंने इस सम्बन्धकी तरफ खयाल ही नहीं किया, यह मेरी गलती थी । अब वह गलती मिट गयी तो फिर विपरीत धारणा हो ही कैसे सकती है ?

जो मनुष्य सच्‍चे हृदयसे प्रभुकी शरणगतिको स्वीकार कर लेता है, उसमें चिन्ता, भय, शोक आदि दोष नहीं रहते । उसका शरण-भाव स्वतः ही दृढ़ होता चला जाता है, वैसे ही, जैसे विवाह होनेके बाद कन्याका अपने पिताके घरसे सम्बन्ध-विच्छेद और पतिके घरसे सम्बन्ध स्वतः ही दृढ़ होता चला जाता है । वह सम्बन्ध यहाँतक दृढ़ हो जाता है कि जब वह कन्या दादी-परदादी बन जाती है, तब उसके स्वप्नमें भी यह भाव नहीं आता कि मैं यहाँकी नहीं हूँ । उसके मनमें यह भाव दृढ़ हो जाता है कि मैं तो यहाँकी ही हूँ और ये सब हमारे ही हैं । जब पौत्रकी स्त्री आती है और घरमें उद्दण्डता करती है, खटपट मचाती है तो वह (दादी) कहती है कि इस परायी जायी छोकरीने मेरा घर बिगाड़ दिया, पर उस बूढ़ी दादीको यह बात याद ही नहीं आती कि मैं भी तो परायी जायी (पराये घरमें जन्मी) हूँ । तात्पर्य यह हुआ कि जब बनावटी सम्बन्धमें भी इतनी दृढ़ता हो सकती है, तब भगवान्‌के ही अंश इस प्राणीका भगवान्‌के साथ जो नित्य सम्बन्ध है, वह दृढ़ हो जाय तो क्या आश्चर्य है ! वास्तवमें भगवान्‌के सम्बन्धकी दृढ़ताके लिये केवल संसारके माने हुए सम्बन्धोंका त्याग करनेकी ही आवश्यकता है ।

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।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७५, शुक्रवार
शरणागति
                                                             

 

(२) निर्भय होनाआचरणोंकी कमी होनेसे भीतरसे भय पैदा होता है और साँप, बिच्छू, बाघ आदिसे बाहरसे भय पैदा होता है । शरणागत भक्तके ये दोनों ही प्रकारके भय मिट जाते हैं । इतना ही नहीं, पतंजलि महाराजने जिस मृत्युके भयको पाँचवाँ क्लेश माना है और जो बड़े-बड़े विद्वानोंको भी होता है, वह भय भी सर्वथा मिट जाता है ।

        अब मेरी वृत्तियाँ खराब हो जायँगीऐसा भयका भाव भी साधकको भीतरसे निकाल देना चाहिये; क्योंकि ‘मैं भगवान्‌की कृपामें तरान्तर हो गया हूँ, अब मेरेको किसी बातका भय नहीं है । इन वृत्तियोंको मेरी माननेसे ही मैं इनको शुद्ध नहीं कर सका; क्योंकि इनको मेरी मानना ही मलिनता है‘ममता मल जरि जाइ’ (मानस ७/११७ क) इस वास्ते अब मैं कभी भी इनको मेरा नहीं मानूँगा । जब वृत्तियाँ मेरी हैं ही नहीं तो मेरेको भय किस बातका ? अब तो केवल भगवान्‌की कृपा-ही-कृपा है ! भगवान्‌की कृपा ही सर्वत्र परिपूर्ण हो रही है । यह बड़ी खुशीकी, प्रसन्नताकी बात है ।’

        लोग ऐसी शंका करते हैं कि भगवान्‌के शरण होकर उनका भजन करनेसे तो द्वैत हो जायगा अर्थात् भगवान्‌ और भक्तये दो हो जायँगे और दूसरेसे भय होता है‘द्वितियाद्वै भयं भवति’ । पर यह शंका निराधार है । भय द्वितीयसे तो होता है, पर आत्मीयसे भय नहीं होता अर्थात् भय दूसरेसे होता है, अपनेसे नहीं । प्रकृति और प्रकृतिका कार्य शरीर-संसार द्वितीय है, इस वास्ते इनसे सम्बन्ध रखनेपर ही भय होता ही; क्योंकि इनके साथ सदा सम्बन्ध रह ही नहीं सकता । कारण यह है कि प्रकृति और पुरुषका स्वभाव भिन्न-भिन्न है; जैसे एक जड़ है और एक चेतन; एक विकारी है और एक निर्विकार; एक परिवर्तनशील है और एक अपरिवर्तनशील; एक प्रकाश्य है और एक प्रकाशक इत्यादि ।

         भगवान्‌ द्वितीय नहीं हैं । वे तो आत्मीय हैं; क्योंकि जीव उनका सनातन अंश है, उनका स्वरूप है । इस वास्ते भगवान्‌के शरण होनेपर उनसे भय कैसे हो सकता है ? प्रत्युत उनके शरण होनेपर मनुष्य सदाके लिये अभय हो जाता है । स्थूल द्रष्टिसे देखा जाय तो बच्‍चेको माँसे दूर रहनेपर तो भय होता है, पर माँकी गोदीमें चले जानेपर उसका भय मिट जाता है; क्योंकि माँ अपनी है । भगवान्‌का भक्त इससे भी विलक्षण होता है । कारण कि बच्‍चे और माँमें तो भेदभाव दीखता है, पर भक्त और भगवान्‌में भेदभाव सम्भव ही नहीं है ।

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।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
शुद्ध ज्येष्ठ पूर्णिमा, 
                 वि.सं.-२०७५, गुरुवार
शरणागति     
                                                             
 

विशेष बात

        शरणागत भक्त ‘मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे है’ इस भावको दृढ़तासे पकड़ लेता है, स्वीकार कर लेता है तो उसकी चिन्ता, भय, शोक, शंका आदि दोषोंकी जड़ कट जाती है अर्थात् दोषोंका आधार कट जाता है । कारण कि भक्तिकी दृष्टिसे सभी दोष भगवान्‌की विमुखतापर ही टिके रहते हैं ।

        भगवान्‌के सम्मुख होनेपर भी संसार और शरीरके आश्रयके संस्कार रहते हैं, जो भगवान्‌के सम्बन्धकी दृढ़ता होनेपर मिट जाते हैं[*] । उनके मिटनेपर सब दोष भी मिट जाते हैं ।

        सम्बन्धका दृढ़ होना क्या है ? चिन्ता, भय, शोक, शंका, परीक्षा और विपरीत भावनाका न होना ही सम्बन्धका दृढ़ होना है । अब इनपर विचार करें ।
(१) निश्चिन्त होनाजब भक्त अपनी मानी हुई वस्तुओंसहित अपने-आपको भगवान्‌के समर्पित कर देता है, तब उसको लौकिक-पारलौकिक किंचिन्मात्र भी चिन्ता नहीं होती अर्थात् अभी जीवन-निर्वाह कैसे होगा ? कहाँ रहना होगा ? मेरी क्या दशा होगी ? क्या गति होगी ? आदि चिंताएँ बिलकुल नहीं रहतीं[†]

        भगवान्‌के शरण होनेपर शरणागत भक्तमें यह एक बात आती है कि ‘अगर मेरा जीवन प्रभुके लायक सुन्दर और शुद्ध नहीं बना तो भक्तोंकी बात मेरे आचरणमें कहाँ आयी ? अर्थात् नहीं आयी; क्योंकि मेरी वृत्तियाँ ठीक नहीं रहतीं ।’ वास्तवमें ‘मेरी वृत्तियाँ हैं’ ऐसा मानना ही दोष है, वृत्तियाँ उतनी दोषी नहीं हैं । मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदिमें जो मेरापन हैयही गलती है; क्योंकि जब मैं भगवान्‌के शरण हो गया और जब सब कुछ उनके समर्पित कर दिया तो मन, बुद्धि आदि मेरे कहाँ रहे ? इस वास्ते शरणागतको मन, बुद्धि आदिकी अशुद्धिकी चिन्ता कभी नहीं करनी चाहिये अर्थात् मेरी वृत्तियाँ ठीक नहीं हैंऐसा भाव कभी नहीं लाना चाहिये । किसी कारणवश अचानक ऐसी वृत्तियाँ आ भी जायँ तो आर्तभावसे ‘हे मेरे नाथ ! हे मेरे प्रभो ! बचाओ ! बचाओ !! बचाओ !!!’ ऐसे प्रभुको पुकारना चाहिये; क्योंकि वे मेरे अपने स्वामी हैं, मेरे सर्वसमर्थ प्रभु हैं तो अब मैं चिन्ता क्यों करूँ ? और भगवान्‌ने कह दिया है कि ‘तू चिन्ता मत कर’ (मा शुचः) । इस वास्ते मैं निश्चिन्त हूँऐसा कहकर मनसे भगवान्‌के चरणोंमें गिर जाओ और निश्चिन्त होकर भगवान्‌से कह दो‘हे नाथ ! यह सब आपके हाथकी बात है, आप जानो ।’

        सर्वसमर्थ प्रभुके शरण भी हो गये और चिन्ता भी करेंये दोनों बातें बड़ी विरोधी हैं; क्योंकि शरण हो गये तो चिन्ता कैसी ? और चिन्ता होती है तो शरणागति कैसी ? इस वास्ते शरणागतको ऐसा सोचना चाहिये कि जब भगवान्‌ कहते हैं कि मैं सम्पूर्ण पापोंसे छुड़ा दूँगा तो क्या ऐसी वृत्तियोंसे छूटनेके लिये मेरेको कुछ करना पड़ेगा ? ‘मैं तो बस, आपका हूँ । हे भगवन् ! मेरेमें वृत्तियोंको अपना माननेका भाव कभी आये ही नहीं । हे नाथ ! सब कुछ आपको देनेपर भी ये शरीर आदि कभी-कभी मेरे दीख जाते हैं; अब इस अपराधसे मेरेको आप ही छुड़ाइये’ऐसा कहकर निश्चिन्त हो जाओ ।


        [*]भगवान्‌के सम्बन्धकी दृढता होनेपर जब संसार-शरीरका आश्रय सर्वथा नहीं रहता, तब जीनेकी आशा, मरनेका भय, करनेका राग और पानेकी लालच—ये चारों ही नहीं रहते ।

[†] चिन्ता दीनदयालको, मो मन सदा आनन्द ।
   जायो सो प्रतिपालसी, रामदास  गोबिन्द ॥

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।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
शुद्ध ज्येष्ठ चतुर्दशी, 
                 वि.सं.-२०७५, बुधवार
शरणागति     
                                                             
 


    ‘मा शुचः’ का तात्पर्य है

      (१) मेरे शरण होकर तू चिन्ता करता है, यह मेरे प्रति अपराध है, तेरा अभिमान है और शरणागतिमें कलंक है ।

    मेरे शरण होकर भी मेरा पूरा विश्वास, भरोसा न रखना मेरे प्रति अपराध है । अपने दोषोंको लेकर चिन्ता करना वास्तवमें अपने बलका अभिमान है; क्योंकि दोषोंको मिटानेमें अपनी सामर्थ्य मालूम देनेसे ही उनको मिटानेकी चिन्ता होती है । हाँ, अगर दोषोंको मिटानेमें चिन्ता न होकर दुःख होता है तो दुःख होना इतना दोषी नहीं है । जैसे, छोटे बालकके पास कुत्ता आता है तो वह कुत्तेको देखकर रोता है, चिन्ता नहीं करता । ऐसे ही दोषोंका न सुहाना दोष नहीं है, प्रत्युत चिन्ता करना दोष है । चिन्ता करनेका अर्थ यही होता है कि भीतरमें अपने छिपे हुए बलका आश्रय है[*] और यही तेरा अभिमान है । मेरा भक्त होकर भी तू चिन्ता करता है तो तेरी चिन्ता दूर कहाँ होगी ? लोग भी देखेंगे तो यही कहेंगे कि यह भगवान्‌का भक्त है और चिन्ता करता है ! भगवान्‌ इसकी चिन्ता नहीं मिटाते ! तू मेरा विश्वास न करके चिन्ता करता है तो विश्वासकी कमी तो तेरी है और कलंक आता है मेरेपर, मेरी शरणागतिपर । इनको तू छोड़ दे ।

  (२) तेरे भाव, वृत्तियों, आचरण शुद्ध नहीं हुए हैं तो भी तू इनकी चिन्ता मत कर । इनकी चिन्ता मैं करूँगा ।

  (३) दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें अर्जुन भगवान्‌के शरण हो जाते हैं और फिर आठवें श्लोकमें कहते हैं कि इस भूमण्डलका धन-धान्यसे सम्पन्न निष्कण्टक राज्य मिलनेपर अथवा देवताओंका आधिपत्य मिलनेपर भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा शोक दूर नहीं हो सकता । भगवान्‌ मानो कह रहे हैं कि तेरा कहना ठीक ही है; क्योंकि भौतिक नाशवान् पदार्थोंके सम्बन्धसे किसीका शोक कभी दूर हुआ नहीं, हो सकता नहीं और होनेकी सम्भावना भी नहीं । परन्तु मेरी शरण लेकर जो तू शोक करता है, यह तेरी बड़ी भारी गलती है । तू मेरे शरण होकर भी भार अपने सिरपर ले रहा है ।

  (४) शरणागत होनेके बात भक्तको लोक-परलोक, सद्गति-दुर्गति आदि किसी भी बातकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । इस विषयमें किसी भक्तने कहा है

                दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासो नरके वा नरकान्तक  प्रकामम् ।
अवधीरित शारदारविन्दौ   चराणौ   ते   मरणऽपि  चिन्तयामि ॥

  ‘हे नरकासुरका अन्त करनेवाले प्रभो ! आप मेरेको चाहे स्वर्गमें रखें, चाहे भूमण्डलपर रखें और चाहे यथेच्छ नरकमें रखें अर्थात् आप जहाँ रखना चाहें, वहाँ रखें । जो कुछ करना चाहें वह करें । इस विषयमें मेरा कुछ भी कहना नहीं है । मेरी तो एक यही माँग है कि शरद्-ऋतुके कमलकी शोभाको तिरस्कृत करनेवाले आपके अति सुन्दर चरणोंका मृत्यु-जैसी भयंकर अवस्थामें भी चिन्तन करता रहूँ; आपके चरणोंको भूलूँ नहीं ।’


[*] कौरवोंकी सभामें द्रौपदीका चीर खींचा गया तो द्रौपदी अपनी साड़ीको हाथोंसे, दाँतोंसे पकड़ती है और भगवान्‌को पुकारती है । अपने बलका आश्रय रखते हुए भगवान्‌को पुकारनेसे भगवान्‌के आनेमें देरी लगती है । परन्तु जब द्रौपदी अपना उद्योग सर्वथा छोड़कर भगवान्‌पर निर्भर हो जाती है तो दुःशासन चीरको खींच-खींचकर थक जाता है और चीरोंका ढेर लग जाता है, पर द्रौपदीका कोई भी अंग उघड़ता नहीं ।

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