यहाँ यह शंका होती है कि भगवान्में विषमता है क्या ? जो वे सर्वस्व समर्पण
करनेवालेका ही उद्धार करते हैं, अन्यका नहीं ? इसका समाधान स्वयं भगवान् ही करते
हैं– समोऽहं सर्वभूतेषु
न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः । ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥ (९/२९) अर्थात् ‘मैं सब भूतोंमें
समभावसे व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है । परन्तु जो भक्त मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें
प्रत्यक्ष प्रकट हूँ ।’ इस श्लोकमें भगवान् प्राणिमात्रमें अपनी समताका निर्देश
किया है । ‘मैं प्राणिमात्रमें सम हूँ ।’ अर्थात् समान रूपसे व्यापक, सबका परम
सुहृद् और पक्षपातरहित हूँ । कोई भी प्राणी मेरा प्रिय अथवा अप्रिय नहीं है । इस
भूतसमुदायमेंसे जो कोई भी जीव प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझमें हैं और
मैं उनमें हूँ । अर्थात् वे मेरे प्रियतम हैं, मैं उनका प्रियतम हूँ । वे मुझे सर्वस्व समर्पण कर देते हैं और मैं भी अपना सर्वस्व
तथा अपने-आपको भी उनपर निछावर कर देता हूँ । मेरी-उनकी इतनी घनिष्ठता है कि मैं और
वे दोनों ही एक हो जाते हैं । ‘तस्मिस्तज्जने भेदाभावात ।’ ‘यतस्तदीयाः ।’ (नारदभक्तिसूत्र ४१।७३) ‘वे मुझे स्वामी समझते हैं, उन्हें
मैं सेवक समझता हूँ । वे मुझे
पिता समझते हैं तो मैं उन्हें पुत्र समझता हूँ । पुत्र माननेवालोंको पिता, मित्र
समझनेवालोंको मित्र और प्रियतम समझनेवालोंको प्रियतम समझता हूँ । जो मेरे लिये व्याकुल होते हैं, उनके लिये मैं भी अधीर हो
उठता हूँ । जो मेरे बिना नहीं रह सकते, उनके बिना मैं भी नहीं रह सकता । जो
जिस भावसे मुझे भजते हैं, मैं भी उसी भावसे उनको भजता हूँ ।’ ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । (४/११) भाव ही नहीं, क्रियामें भी जो मेरी ओर तेजीसे दौड़ते हैं, मैं भी उनकी ओर तीव्र गतिसे दौड़ता हूँ । यहाँ यह बात ध्यान देनेयोग्य है कि अल्पशक्तिमान् जीवकी क्रिया अपनी शक्तिके अनुसार होगी और अनन्त शक्तिसम्पन्न परमात्माकी उनकी शक्तिके अनुसार । अर्थात् अल्पशक्ति रखनेवाला जीव यदि अपनी पूरी शक्ति लगाकर कुछ भी आगे बढ़ा तो भगवान् भी अपनी पूरी शक्ति लगा शीघ्र ही उससे आ मिलेंगे । भगवान्को पूरी शक्तिसे अपनी ओर आकर्षित करनेका सरल उपाय है–उनकी ओर अपनी पूरी शक्तिसे अग्रसर होना । भक्तोंका ऐसा विलक्षण भाव है कि वे चेष्टारहित परमात्मासे भी चेष्टा करवा देते हैं । सर्वदेशी व्यापक और निराकार परमेश्वरको एक देशमें प्रकट करके देख लेते हैं । निर्गुणको सगुणरूपमें प्रकट होनेके लिये बाध्य कर देते हैं । जो सर्वथा उदासीन हैं, उन परमात्माको भी वे अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं । वे प्रभुके प्यारे भक्त जिस समय जैसे रूपमें उन्हें देखना चाहते हैं, उस समय भगवान्को उसी रूपमें दर्शन देना पड़ता है । |