(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒शरीरमें शक्ति कम होनेपर ज्यादा रोग होते हैं‒यह बात कहाँतक ठीक है ?
उत्तर‒इस विषयमें दो मत हैं‒आयुर्वेदका मत और धर्मशास्त्रका मत । आयुर्वेदकी दृष्टि शरीरपर ही रहती है;अतः वह ‘शरीरमें शक्ति कम होनेपर रोग ज्यादा पैदा होते हैं’‒ऐसा मानता है । परन्तु धर्मशास्त्रकी दृष्टि शुभ-अशुभ कर्मोंपर रहती है; अतः वह रोगोंके होनेमें पाप-कर्मोंको ही कारण मानता है ।
जब मनुष्योंके क्रियमाण- (कुपथ्यजन्य-) कर्म अथवा प्रारब्ध- (पाप-) कर्म अपना फल देनेके लिये आ जाते हैं, तब कफ, वात और पित्त‒यें तीनों विकृत होकर रोगोंको पैदा करनेमें हेतु बन जाते हैं और तभी भूत-प्रेत भी शरीरमें प्रविष्ट होकर रोग पैदा कर सकते हैं; कहा भी है‒
वैद्या वदन्ति कफपित्तमरुद्विकारान्
ज्योतिर्विदो ग्रहगतिं परिवर्तयन्ति ।
भूता विशन्तीति भूतविदो वदन्ति
प्रारब्धकर्म बलवन्मुनयो वदन्ति ॥
‘रोगोंके पैदा होनेमें वैद्यलोग कफ, पित्त और वातको कारण मानते हैं, ज्योतिषीलोग ग्रहोंकी गतिको कारण मानते हैं, प्रेतविद्यावाले भूत-प्रेतोंके प्रविष्ट होनेको कारण मानते हैं;परन्तु मुनिलोग प्रारब्धकर्मको ही बलवान् (कारण) मानते हैं ।’
भोजनके लिये आवश्यक विचार
उपनिषदोंमें आता है कि जैसा अन्न होता है, वैसा ही मन बनता है‒‘अन्नमय हि सोम्य मनः ।’ (छान्दोग्य॰ ६ । ५ । ४) अर्थात् अन्नका असर मनपर पड़ता है । अन्नके सूक्ष्म सारभागसे मन (अन्तःकरण) बनता है, दूसरे नम्बरके भागसे वीर्य, तीसरे नम्बरके भागसे मल बनता है जो कि बाहर निकल जाता है । अतः मनको शुद्ध बनानेके लिये भोजन शुद्ध, पवित्र होना चाहिये । भोजनकी शुद्धिसे मन (अन्तःकरण-) की शुद्धि होती है‒‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः’(छान्दोग्य॰ २ । २६ । २) । जहाँ भोजन करते हैं, वहाँका स्थान, वायुमण्डल, दृश्य तथा जिसपर बैठकर भोजन करते हैं, वह आसन भी शुद्ध, पवित्र होना चाहिये । कारण कि भोजन करते समय प्राण जब अन्न ग्रहण करते हैं, तब वे शरीरके सभी रोमकूपोंसे आसपासके परमाणुओंको भी खींचते‒ग्रहण करते हैं । अतः वहाँका स्थान, वायुमण्डल आदि जैसे होंगे, प्राण वैसे ही परमाणु खींचेंगे और उन्हींके अनुसार मन बनेगा । भोजन बनानेवालेके भाव, विचार भी शुद्ध सात्त्विक हों ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘आहार-शुद्धि’ पुस्तकसे
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