(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक राजा भगवान्के बड़े भक्त थे,
वे गुप्त रीतिसे भगवान्का भजन करते थे । उनकी रानी भी बड़ी भक्त
थी । बचपनसे ही वह भजनमें लगी हुई थी । इस राजाके यहाँ ब्याहकर आयी तो यहाँ भी ठाकुरजीका
खूब उत्सव मनाती, ब्राह्मणोंकी सेवा,
दीन-दुःखियोंकी सेवा करती;
भजन-ध्यानमें, उत्सवमें लगी रहती । राजा साहब उसे मना नहीं करते । वह रानी
कभी-कभी कहती कि ‘महाराज ! आप भी कभी-कभी राम-राम‒ऐसे भगवान्का नाम तो लिया करो
।’ वे हँस दिया करते । रानीके मनमें इस बातका बड़ा दुःख रहता कि क्या करें,
और सब बड़ा अच्छा है । मेरेको सत्संग,
भजन, ध्यान करते हुए मना नहीं करते;
परन्तु राजा साहब स्वयं भजन नहीं करते ।
ऐसे होते-होते एक बार रानीने देखा कि राजासाहब गहरी नींदमें
सोये हैं । करवट बदली तो नींदमें ही ‘राम’ नाम कह दिया । अब सुबह होते ही रानीने उत्सव मनाया । बहुत ब्राह्मणोंको
निमन्त्रण दिया; बच्चोंको, कन्याओंको भोजन कराया,
उत्सव मनाया । राजासाहबने पूछा‒‘आज उत्सव किसका मना रही हो ?
आज तो ठाकुरजीका भी कोई दिन विशेष नहीं है ।’
रानीने कहा‒‘आज हमारे बहुत ही खुशीकी बात है ।’ क्या खुशीकी
बात है ? ‘महाराज ! बरसोंसे मेरे मनमें था कि आप भगवान्का
नाम उच्चारण करें । रातमें आपके मुखसे नींदमें भगवान्का नाम निकला ।’ निकल गया ? ‘हाँ’ इतना
कहते ही राजाके प्राण निकल गये । ‘अरे मैंने उमरभर जिसे छिपाकर रखा था, आज
निकल गया तो अब क्या जीना ?’
गुप्त अकाम निरन्तर ध्यान सहित सानन्द ।
आदर जुत जपसे तुरत पावत परमानन्द ॥
ये छः बातें जिस जपमें होती हैं, उस
जपका तुरन्त और विशेष माहात्म्य होता है । भगवान्का नाम गुप्त रीतिसे लिया जाय,
वह बढ़िया है । लोग देखें ही नहीं,
पता ही न लगे‒यह बढ़िया बात है परंतु कम-से-कम दिखावटीपन तो होना
ही नहीं चाहिये । इससे असली नाम-जप नहीं होता । नामका निरादर होता है । नामके बदले मान-बड़ाई खरीदते हैं, आदर
खरीदते हैं, लोगोंको अपनी तरफ खींचते हैं‒यह नाम महाराजकी बिक्री
करना है । यह बिक्रीकी चीज
थोड़े ही है ! नाम जैसा धन, बतानेके लिये है क्या ?
लौकिक धन भी लोग नहीं बताते, खूब छिपाकर
रखते हैं । यह तो भीतर रखनेका है, असली धन है ।
माई मेरे निरधनको धन राम ।
रामनाम मेरे हृदयमें राखूं ज्यूं
लोभी राखे दाम ॥
दिन दिन सूरज सवायो उगे, घटत
न एक छदाम ।
सूरदास के इतनी पूँजी, रतन मणि से नहीं काम ॥
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे |