(गत ब्लॉगसे आगेका)
मनुष्य खयाल नहीं करता कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना
चाहिये । औरोंको समझाते हुए पण्डित बन जाते हैं । अपना काम जब सामने आता है,
तब पण्डिताई भूल जाते हैं,
वह याद नहीं रहती ।
परोपदेशवेलायां शिष्टाः सर्वे भवन्ति हि ।
विस्मरन्तीह शिष्टत्वं स्वकार्ये समुपस्थिते ॥
दूसरोंको उपदेश देते समय जो पण्डिताई होती है,
वही अगर अपने काम पड़े,
उस समय आ जाय तो आदमी निहाल हो जाय । जाननेकी कमी नहीं है, काममें
लानेकी कमी है । हमें एक सज्जनने
बड़ी शिक्षाकी बात कही कि आप व्याख्यान देते हुए साथ-साथ खुद भी सुना करो । इसका अर्थ
यह हुआ कि मैं जो बातें कह रहा हूँ तो मेरे आचरणमें कहाँ कमी आती है ?
कहाँ-कहाँ गलती होती है ?
जो आदमी अपना कल्याण चाहे तो वह दूसरोंको सुननेके
लिये व्याख्यान न दे । अपने सुननेके लिये व्याख्यान दे । लोग सुननेके लिये सामने आते हैं,
उस समय कई बातें पैदा होती हैं । अकेले बैठे इतनी पैदा नहीं
होतीं । इसलिये उन बातोंको स्वयं भी सुनें । केवल औरोंकी तरफ ज्ञानका प्रवाह होता है,
यह गलती होती है ।
पण्डिताई पाले पड़ी ओ पूरबलो पाप ।
ओराँ ने परमोदताँ खाली रह गया आप ॥
पण्डित केरी पोथियाँ ज्यूँ तीतरको ज्ञान ।
ओराँ सगुन बतावहि आपा फंद
न जान ॥
करनी बिन कथनी कथे अज्ञानी दिन रात ।
कूकर ज्यूँ भुसता फिरे सुनी सुनाई
बात ॥
हमें एकने बताया‒‘कूकर ज्यूँ भुसता फिरे’‒इसका अर्थ यह हुआ कि एक कुत्ता यहाँ किसीको देखकर भुसेगा तो
दूसरे मोहल्लेके कुत्ते भी देखा-देखी भुसने लग जायेंगे । एक-एकको सुनकर सब कुत्ते भुसने
लग जायेंगे । अब उनको पूछा जाय कि किसको भुसते हो ?
यह तो पता नहीं । दूसरा भुसता है न,
इसलिये बिना देखे ही भुसना शुरू कर दिया । ऐसे ही दूसरा कहता
है तो अपने भी कहना शुरू कर दिया । अरे, वह क्यों कहता है ?
क्या शिक्षा देता है ?
उसका क्या विचार है ?
सुनी-सुनायी बात कहना शुरू कर देनेसे बोध नहीं होता
। इसलिये मनुष्यको अपनी जानकारी अपने आचरणमें लानी चाहिये ।
भजनमें दिखावा
भगवान्का नाम प्रेमपूर्वक लेता रहे,
नेत्रोंसे जल झरता रहे,
हृदयमें स्नेह उमड़ता रहे,
रोमांच होता रहे तो देखो,
उनमें कितनी विलक्षणता आ जाती है, पर वही दूसरोंको दिखानेके
लिये, दूसरोंको सुनानेके लिये करेंगे तो उसका मूल्य घट जायगा । यह चीज औरोंको दिखानेकी नहीं है । धन तिजोरीमें रखनेका होता है । किसीने एक सेठसे पूछा‒‘तुम
घरमें रहते हो या दूकानमें ? कहाँ सोते हो ?’ तो सेठने कहा‒‘हम हाटमें सोवें,
बाटमें सोवें, घरमें सोवें, सोवें और न भी सोवें ।’
अगर हम कहें कि दूकानमें सोते हैं तो घरमें चोरी कर लेगा ! घरमें
सोनेकी कहें तो दूकानमें चोरी कर लेगा । अर्थ यह हुआ कि तुम चोरी करने मत आना । लौकिक
धनके लिये इतनी सावधानी है कि साफ नहीं कह सकते हो कि कहाँ सोते हैं ?
और नामके लिये इतनी उदारता कि लोगोंको दिखावें ! राम,
राम, राम ! कितनी बेसमझी है ! यह क्या बात है ?
नामको धन नहीं समझा है । इसको धन समझते तो गुप्त रखते ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे |