(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
बहुतोंका
यह प्रश्न रहता
है कि संसार तो
नाशवान् है ही, पर परमात्मा अविनाशी
है‒इसका क्या
पता ? अरे, अविनाशीके
बिना विनाशी दीखता
ही नहीं । बिना
सत्यके असत्यका
भान ही नहीं होता
। असत्य
तभी असत्य दीखता
है, जब आप सत्यमें
स्थित होते हैं
। तो सत्यमें
आपकी स्थिति स्वतःसिद्ध
है । बस यहींपर
डटे रहो । न जाने
सत्य क्या होता
है ? प्राप्ति
क्या होती है ? तत्त्वज्ञान
क्या होता है ? जीवन्मुक्त क्या
होता है ? क्या यों सींग
हो जाते हैं, कि कोई पूँछ हो
जाती है, कि कोई पंख लग
जाते हैं, क्या हो जाता है ? न जाने इस प्रकार
क्या-क्या कल्पना
कर रखी है !
कृपानाथ
! आप इतनी कृपा करो
। बस इतनी ही बात
है कि असत्यका
जिसे बोध होता
है, वही सत्य है ।
कोई पूछे
कि सब कुछ दीखता
है, पर आँख नहीं
दीखती ? तो जिससे सब कुछ
दीखता है, वही आँख है । आँखको
कैसे देखा जाय
कि यह आँख है ? दर्पणमें देखनेपर
भी देखनेकी शक्ति
नहीं दीखती, वह शक्ति जिसमें
है, वह स्थान दीखता
है । तो सुनने, पढ़ने, विचार करनेसे
जो आपको ज्ञान
होता है, वह ज्ञान
जिससे होता है, वही सत्य
है । वही सबका प्रकाशक
और आधार है । वही
ज्ञानस्वरूप
है, वही चेतनस्वरूप
है, वही आनन्दस्वरूप
है ।
जैसे दर्पणमें
मुख दीखता है, ऐसे ही यह संसार
दीखता है । संसार
स्थिर नहीं रहता, बदलता रहता है‒यह
अपने अनुभवकी
बात है । अब यहीं
देखें । पहले यहाँ
बिलकुल जंगल था, अब मकान बन गया
। यह आपकी देखी
हुई बात है । यह
कौन-सा सदा रहेगा
! एक दिन सफाचट हो
जायगा, कुछ नहीं रहेगा
। तो सब मिट रहा
है, प्रतिक्षण
मिट रहा है । इसे
मिटता हुआ ही मान
लें ।
जासु सत्यता
तें जड़ माया ।
भास सत्य इव
मोह सहाया ॥
(मानस १।११७।४)
कितनी सुन्दर
बात कही छोटे-से
रूपमें ! जिसकी
सत्यतासे यह जड़
माया मूढ़ताके
कारण सत्यकी तरह
दीखती है, वही सत्य है ।
जैसे चनेके आटेकी
बूँदी बनायी जाय, बिलकुल फीकी, तो उसे चीनीमें
डालनेसे वह मीठी
हो जाती है । चनेका
फीका आटा भी मीठा
लगने लगता है, तो यह मिठास उसकी
नहीं है । उन मीठी
बूँदियोंको मुँहमें
थोड़ी देर चूसते
जाओ, तो
वे फीकी हो जायँगी, क्योंकि वे तो
फीकी ही थीं । तो
बताओ कि चीनी मीठी
हुई कि बूँदी मीठी
हुई ? जो
फीकेको भी मीठा
करके दिखा दे, वह स्वयं मीठा
है ही । ऐसे
जो असत्यको भी
सत्यकी तरह दिखा
दे, वह सत्य है
ही ।
प्रकाश और
अंधकार‒दोनोंका
जिससे ज्ञान होता
है, वह अलुप्त
प्रकाश है अर्थात्
वह प्रकाश कभी
लुप्त होता ही
नहीं । वह क्रियाओं
और अक्रियाओको, जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्तिको, सम्पूर्ण अवस्थाओंको
प्रकाशित करता
है । सब अवस्थाएँ
उससे जानी जाती
हैं । उसीमें
आप हरदम स्थित
रहें । उससे नीचे
न उतरें ।
नारायण !
नारायण !!
नारायण !!!
‒
‘तात्त्विक
प्रवचन’
पुस्तकसे
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