हमें तो अपना
उद्धार करना ही
है, चाहे कुछ भी हो‒इस
निश्चयकी लोगोंमें
कमी है । यह इच्छा
जितनी जोरदार
होगी, उतनी ही संसारसे
अरुचि हो जायगी
। सत्संगमें
पारमार्थिक बातोंको
सुननेसे (अपने
उद्धारकी) रुचि
होती है, और सांसारिक भोग
भोगनेके बाद (भोगोंसे)
अरुचि होती है
। तो इन दोनोंको
स्थायी कर लें
अर्थात् सत्संगकी
रुचि और भोगकी
अरुचि‒इन दोनोंको
पक्का कर लें ।
यह आपका काम है
।
अभी सत्संगमें
रुचि हो तो सत्संगसे
उठते ही इस बातका
निश्चय कर लें
कि अब यही काम करना
है, तो यह स्थायी
हो जायगी । अगर यह स्थायी
हो गयी तो सब
काम बन गया । यह
अपने उद्धारका
काम बहुत सुगम
है, केवल रुचिकी
जरूरत है । भीतर एक बात
जँची हुई है कि
यह काम जल्दी नहीं
होता, देरी
लगती है । यह बहुत
घातक चीज है । परमात्मतत्त्वके
लिये भविष्यकी
आशा बहुत ही घातक
है । भविष्यकी
आशा उस वस्तुके
लिये होती है जो
कर्मजन्य हो, जिससे देश-कालकी
दूरी हो । पर जो सब देश, काल, वस्तु, अवस्था, परिस्थिति आदिमें
पूर्णरूपसे विराजमान
हो, उसके लिये
भविष्य नहीं होता
। सांसारिक
कामोंके लिये
जैसे भविष्यकी
आशा होती है, वैसे परमात्मतत्त्वके
लिये भी भविष्यकी
आशा रखना कि इसमें
बहुत समय लगेगा‒यह
बहुत गलत धारणा
है ।
मैं आपको वही
बातें सुनाता
हूँ, जो
मुझे अच्छी लगती
हैं और जिनसे मुझे
बहुत लाभ हुआ है
। आप इन बातोंका
आदर करें तो बहुत
जल्दी लाभ हो सकता
है । जैसे एक राजाका
राज्यकी सम्पूर्ण
वस्तुओंपर, सम्पूर्ण गाँवोंपर
शासन रहता है‒सम्बन्ध
रहता है, उससे भी बहुत विशेष
सम्बन्ध परमात्माका
है । बहुत विशेष
यह कि इन वस्तुओंकी
सत्ता ही उस परमात्मासे
दीख रही है । नहीं
तो एक क्षण भी न
ठहरनेवाला संसार
सच्चा क्यों दीखता
! तो इससे परमात्माका
नित्य-निरन्तर
सम्बन्ध है ही
। किसी क्षण भी
उसका वियोग सम्भव
नहीं, ऐसा
उसका नित्ययोग
निरन्तर बना हुआ
है । संसारके संयोगके
वियोगका नाम ही
‘योग’ है‒‘तं विद्याद्
दु:खसंयोगवियोगं
योगसञ्ज्ञितम्
॥’ (गीता
६।२३) । इस क्षणभंगुर
संसारसे वियोग
स्वीकार करते
ही योग हो जाता
है । वियोग तो प्रतिक्षण
हो ही रहा है । तो
अभी ही वियोगका
अनुभव कर लें ।
संसारके
भोगोंसे अरुचि
सबकी ही होती है
। उस अरुचिको संसारी
लोग स्थायी नहीं
करते और भोगोंसे
जो सुख मिलता है, उस रुचिको
स्थायी करते हैं
। यहीं गलती होती
है । साधकको चाहिये
कि वह उस अरुचिको
स्थायी करे ।
प्रश्न‒संसारसे वियोगका
अनुभव होनेपर
उसकी नश्वरता
या असत्यताका
ज्ञान तो हो जाता
है, लेकिन सत्य क्या
है‒इसका पता कैसे
लगेगा ? हम किस
प्रकार जानें
कि यह सत्य-तत्त्व
है ?
उत्तर‒देखो भाई, मेरे विचारमें
तो सत्यकी अभिलाषा
कम है, इसलिये लगन
नहीं है । सत्यकी
बात इतनी सरल, इतनी बढ़िया
और इतनी प्रत्यक्ष
है कि क्या बताऊँ
! अब ध्यान दें
। जिससे आपको असत्यका
ज्ञान होता है, वही सत्य
है । असत्यका ज्ञान
असत्यसे नहीं
होता । अब बताओ
कितना नजदीक है
वह सत्य !
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘तात्त्विक
प्रवचन’
पुस्तकसे
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