(गत ब्लॉगसे आगेका)
विवाहके समय स्त्री-पुरुष
दोनों ही परस्पर वचनबद्ध होते हैं । उसके अनुसार पतिको सलाह देनेका, पतिसे अपने मनकी
बात कहनेका पत्नीको अधिकार है । गान्धारी कितने ऊँचे दर्जेकी पतिव्रता थी कि जब उसने
सुना कि जिससे मेरा विवाह होनेवाला है, उसके नेत्र नहीं हैं, तो उसने भी अपने
नेत्रोंपर पट्टी बाँध ली; क्योंकि नेत्रोंका जो सुख पतिको नहीं है, वह सुख मुझे भी
नहीं लेना है! परन्तु समय आनेपर उसने भी पति (धृतराष्ट्र)-को समझाया कि आपको दुर्योधनकी
बात नहीं माननी चाहिये, नहीं तो कुलका नाश हो जायगा । ऐसी सलाह उसने कई बार दी, पर धृतराष्ट्रने
उसकी सलाह नहीं मानी, जिससे कुलका नाश हो गया । तात्पर्य है कि पतिको अच्छी
सलाह देनेका पत्नीको पूरा अधिकार है ।
शास्त्रोंमें
आया है कि जो पतिव्रता स्त्री तन-मनसे पतिकी सेवा करती है, अपने धर्मका पालन
करती है, वह मृत्युके बाद
पतिलोकमे (पतिके पास) जाती है । अगर पति दुश्चरित्र है तो पतिका लोक नरक होगा; अतः पतिव्रता
स्त्रीका लोक भी नरक ही होना चाहिये ! परन्तु पतिव्रता स्त्री नरकोंमें नहीं जा सकती; क्योंकि उसने
शास्त्रकी,
भगवान्की, सन्त-महात्माओंकी
आज्ञाका पालन किया है, पातिव्रतधर्मका पालन किया है । अतः वह अपने पातिव्रत-धर्मके
प्रभावसे पतिका उद्धार कर देगी अर्थात् जो लोक पत्नीका होगा, वही लोक पतिका
हो जायगा । तात्पर्य है कि अपने कर्तव्यका पालन करनेवाला
मनुष्य दूसरोंका उद्धार करनेवाला बन जाता है ।
प्रश्न‒अगर पति पत्नीको व्यभिचारके लिये प्रेरित करे तो पत्नीको क्या करना चाहिये ?
उत्तर‒पतिको यह अधिकार
नहीं है कि वह अपनी स्त्री दूसरोंको दे; क्योंकि पत्नीके पिताने पतिको
ही दान दिया है । अन्न, वस्त्र आदिका दान लेनेवाला तो अन्न आदि दूसरोंको दे सकता
है, पर कन्यादान लेनेवाला
पति दूसरोंको अपनी पत्नी नहीं दे सकता । अगर वह ऐसा करता
है तो वह महापापका भागी होता है । ऐसी स्थितिमें पत्नीको पतिकी बात बिलकुल नहीं
माननी चाहिये । उसको अपने पतिसे साफ कह देना चाहिये कि मेरे पिताने आपको ही कन्यादान
किया है; अतः दूसरोंको
देनेका आपका अधिकार नहीं है । इस विषयमें वह पतिकी आज्ञा भंग करती है तो उसको कोई दोष
नहीं लगता;
क्योंकि पतिकी
यह आज्ञा अन्याय है और अन्यायको स्वीकार करना अन्यायको प्रोत्साहित करना है जो कि सबके
लिये अनुचित है । दूसरी बात, अगर पत्नी पतिकी धर्मविरुद्ध
आज्ञाका पालन करेगी तो इस पापके कारण पतिको नरकोंकी प्राप्ति होगी । अतः पत्नीको ऐसी आज्ञाका पालन नहीं करना चाहिये, जिससे
पतिको नरकोंमें जाना पड़े ।
अगर पति स्वयं
भी शास्त्रनियमके विरुद्ध स्त्रीसंग करता है तो वह अन्याय, पाप करता है ।
धर्मयुक्त काम भगवान्का स्वरूप है‒‘धर्माविरुद्धो भूतेषु
कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥’ (गीता ७ । ११); अतः इसमें दोष, पाप नहीं है ।
परन्तु धर्मसे विरुद्ध स्त्रीको मनमाना काममें लेना अन्याय है । मनुष्यको सदा शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार ही प्रत्येक कार्य करना
चाहिये (गीता १६ । २४) ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
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