।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७५, सोमवार
  करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य


हम मानी हुई एकदेशीय सत्ता ‘मैं हूँ’ को तो दृढ़तासे अनुभव करते हैं, पर तत्त्वकी अनन्त सत्ताको मानते हैं[1] इस विपरीतताका कारण अहंकार ही है । अहंकारको मिटानेके लिये एकदेशीय सत्ताको अनन्त सत्तामें मिला दें अर्थात् समर्पित कर दें, जो कि वास्तवमें है । ऐसा करनेसे मानी हुई एकदेशीय सत्ता नहीं रहेगी, प्रत्युत देश-कालादि भावोंसे अतीत अनन्त सत्ता रह जायगी । तात्पर्य है कि अनन्त सत्ताकी मान्यता मान्यतारूपसे नहीं रहेगी, प्रत्युत पहले जितनी दृढ़तासे एकदेशीय सत्ताका भान होता था, उससे भी अधिक दृढ़तासे अनन्त सत्ताका अनुभव स्वतः होने लगेगा ।

एक मार्मिक बात है कि अनन्त सत्ताको एकदेशीय सत्तामें मिलानेकी अपेक्षा एकदेशीय सत्ताको अनन्त सत्तामें मिलाना श्रेष्ठ है । कारण कि एकदेशीय सत्तामें अनादिकालसे माने हुए अहंकारके संस्कार रहते हैं; अतः जब उसमें अनन्त सत्ताकी स्थापना करेंगे, तब वह अहंकार जल्दी नष्ट नहीं होगा । परन्तु एकदेशीय सत्ताको अनन्त सत्तामें मिलानेसे अहंकार सर्वथा नहीं रहेगा । कारण कि अनन्त सत्ता मानी हुई नहीं है, प्रत्युत वास्तविक है ।

वास्तवमें जीव और ब्रह्मकी एकता करना ही भूल है । जीव और ब्रह्मकी एकता आजतक न कभी हुई है, न होगी और न हो ही सकती है । कारण कि जीवमें ब्रह्मभाव नहीं है और ब्रह्ममें जीवभाव नहीं है । अतः जीव और ब्रह्मकी एकता न करके जीवभाव अर्थात् अहम् (मैं-पन) को मिटाना है । अहम्‌के मिटते ही केवल ब्रह्म रह जाता है । इसीको गीताने ‘वासुदेवः सर्वम्’ (७ । १९) कहा है । इसीलिये यह कहा गया है कि जीवको ब्रह्मकी प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत जीवभाव मिटनेपर ब्रह्मको ही ब्रह्मकी प्राप्ति होती है‒

ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति (बृहदारण्यक ४ । ४ । ६)

ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति (मुण्डक ३ । २ । ९)

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः (गीता ५ । २०)

भगवान्‌ने अहम् मिटनेके बाद ही ब्राह्मी स्थिति होनेकी बात कही है‒

निर्ममो  निरहंकारः   स    शान्तिमधिगच्छति ॥
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
                                               (गीता २ । ७१-७२)

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होनेपर फिर कभी अहम्‌से मोहित (अहंकारविमूढात्मा) होनेकी सम्भावना नहीं रहती ।



[1] वास्तवमें ‘मैं हूँ’यह एकदेशीय सत्ता हमारी झूठी मान्यता है, अनुभव नहीं‒‘अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) । इस झूठी मान्यताके कारण ही अनन्त सत्ताका (जो कि पहलेसे ही ज्यों-की-त्यों विद्यमान है) अनुभव नहीं होता अर्थात् उसकी तरफ हमारी दृष्टि नहीं जाती । इसलिये ‘मैं हूँ’ इस झूठी मान्यताको मान्यताके द्वारा ही मिटानेकी बात गीतामें आयी है‒‘नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ (५ । ८)