।। श्रीहरिः ।।



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   कार्तिक शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें आश्रयका वर्णन



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यावज्जीवो न गृह्‌णीयाद्धरेश्‍च चरणाश्रयम् ।

तावन्‍न च तरेत् कश्‍चिन्मृत्युसंसारसागरात् ॥

जीवमात्रका यह स्वभाव है कि वह किसी-न-किसीका आश्रय लेना चाहता है और लेता भी है । मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, लता आदि सभी किसी-न-किसीका आश्रय लेते ही हैं; क्योंकि जीवमात्र साक्षात् परमात्माका अंश है । अतः जबतक यह जीव अपने अंशी परमात्माका आश्रय नहीं लेगा, तबतक यह दूसरोंका आश्रय लेता ही रहेगा, पराधीन होता ही रहेगा, दुःख पाता ही रहेगा ।

मनुष्य तो विवेकप्रधान प्राणी है पर अपने विवेकको महत्त्व न देकर यह स्वयं साक्षात् अविनाशी परमात्माका चेतन अंश होता हुआ भी नाशवान् जड़का आश्रय ले लेता है अर्थात् शरीर, बल, बुद्धि, योग्यता, कुटुम्ब-परिवार, धन-सम्पत्ति आदिका आश्रय ले लेता है‒यह इसकी बड़ी भारी गलती है ।

गीतामें अर्जुनने भगवान्‌का आश्रय लेकर ही अपने कल्याणकी बात पूछी है (२ । ७) । अर्जुनने जबतक भगवान्‌का आश्रय नहीं लिया, तबतक गीताके उपदेशका आरम्भ ही नहीं हुआ । उपदेशके अन्तमें भी भगवान्‌ने अपना आश्रय लेनेकी ही बात कही है (१८ । ६६) । इस प्रकार गीताके उपदेशका आरम्भ और उपसंहार भगवदाश्रयमें ही हुआ है ।

भगवान्‌से मिली हुई स्वतन्त्रताके कारण मनुष्य किसीका भी आश्रय ले सकता है । अतः कई मनुष्य अपनी कामनाओंकी पूर्तिके लिये देवताओंका आश्रय लेते हैं (७ । २०), पर परिणाममें उनको नाशवान् फल ही मिलता है (७ । २३) । कई मनुष्य भोगोंकी कामनासे वेदोंमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानोंका आश्रय लेते हैं, पर परिणाममें वे आवागमनको प्राप्‍त होते हैं (९ । २१) ।

कई मनुष्य न तो भगवान्‌का आश्रय लेते हैं और न भगवान्‌को भगवान्‌रूपसे ही जानते हैं । अतः ऐसे मनुष्योंमेंसे कई तो आसुरभावका आश्रय लेते हैं (७ । १५); कई आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृतिका आश्रय लेते हैं (९ । १२); कई कभी पूरी न होनेवाली कामनाओंका आश्रय लेते हैं (१६ । १०); कई मृत्युपर्यन्त रहनेवाली अपार चिन्ताओंका आश्रय लेते हैं (१६ । ११); कई अहंकार, दुराग्रह, घमंड, कामना और क्रोधका आश्रय लेते हैं ( १६ । १८) । इन आश्रयोंके फलस्वरूप उनको बार-बार चौरासी लाख योनियों और नरकोंमें जाना पड़ता है (१६ । १९-२०) ।