।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीताका आरम्भ और 

पर्यवसान शरणागतिमें



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आदावन्ते च गीतायां प्रोक्ता वै शरणागतिः ।

आदौ  शाधि  प्रपन्नं मामन्ते  मां शरणं व्रज ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुन साथ-साथ ही रहते थे । साथ-साथ रहनेपर भी जबतक अर्जुनने भगवान्‌की शरण होकर अपने कल्याणकी बात नहीं पूछी, तबतक भगवान्‌ने उपदेश नहीं दिया । मनुष्य शरण कब होता है ? जब मनुष्य सच्‍चे हदयसे अपना कल्याण चाहता है, पर उसको अपने कल्याणका कोई रास्ता नहीं दीखता और उसका बल, बुद्धि, योग्यता आदि काम नहीं करते, तब वह गुरु, ग्रन्थ अथवा भगवान्‌की शरण होता है । अर्जुनकी भी ऐसी ही दशा थी । उनको क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे तो युद्ध करना ठीक मालूम देता है, पर कुलनाशकी दृष्टिसे युद्ध न करना ही ठीक जँचता है । इसलिये युद्ध करना ठीक है अथवा न करना ठीक है‒इसका वे निर्णय नहीं कर पाये । अगर भगवान्‌की सम्मतिसे युद्ध किया भी जाय तो हमारी विजय होगी अथवा पराजय होगी‒इसका भी उन्हें पता नहीं और युद्धमें कुटुम्बियोंको मारकर वे जीना भी नहीं चाहते (२ । ६) । ऐसी अवस्थामें अर्जुन भगवान्‌की शरण होते हैं (२ । ७) ।

भगवान्‌की शरण होनेपर भी अर्जुनके मनमें यह बात जँची हुई है कि युद्ध करनेसे हमें अधिक-से-अधिक पृथ्वीका धन-धान्यसम्पन्‍न राज्य ही मिल सकता है । अगर इससे भी अधिक माना जाय तो देवताओंका आधिपत्य मिल सकता है; परन्तु इससे इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा शोक दूर नहीं हो सकता (२ । ८) । दूसरी बात, मैं भगवान्‌की शरण हो गया हूँ; अतः अब भगवान्‌ चट कह देंगे कि तू युद्ध कर, जबकि युद्धसे मेरेको कोई लाभ नहीं दीखता । अतः अर्जुन भगवान्‌के कुछ बोले बिना अपनी तरफसे साफ-साफ कह देते हैं कि मैं युद्ध नहीं करूँगा’न योत्स्ये (२ । ९) ।

मनुष्य जिसके शरण हो जाय, उसकी बात यदि समझमें न भी आये, तो भी उसमें यह दृढ़ विश्‍वास रहना चाहिये कि इनकी बात माननेसे मेरा भला ही होगा । अर्जुनका भी भगवान्‌पर दृढ़ विश्‍वास था कि यद्यपि मेरेको अपनी दृष्टिसे युद्ध करनेमें किसी तरहका लाभ नहीं दीखता, तथापि भगवान्‌ जो भी कह रहे है, वह ठीक ही है । इसलिये गीतामें अर्जुन तरह-तरहकी शंकाएँ तो करते रहे, पर वे भगवान्‌से विमुख नहीं हुए ।

अर्जुनके पूछनेपर तथा अपनी तरफसे भी भगवान्‌ने बहुत मार्मिक बातें कहीं और अपनी शरणागतिकी बातें भी कहीं, पर अर्जुनको वे बातें पूरी तरह जँची नहीं । अन्तमें भगवान्‌ने कहा कि तू सबके हृदयमें विराजमान सर्वव्यापी ईश्‍वरकी शरणमें चला जा; उसकी कृपासे तेरेको संसारसे सर्वथा उपरति और अविनाशी पदकी प्राप्‍ति होगी (१८ । ६२) । मैंने तो यह गोपनीय-से-गोपनीय बात तेरेसे कह दी, अब जैसी तेरी मरजी हो, वैसा कर‒यथेच्छसि तथा कुरु’ (१८ । ६३) ।

अर्जुनमें यह एक बहुत बड़ी विलक्षणता थी कि वे भगवान्‌को छोड़ना नहीं चाहते थे । अतः जब भगवान्‌ने कहा कि जैसी तेरी मरजी हो, वैसा करतब अर्जुन बहुत घबरा गये, व्याकुल हो गये । अतः भगवान्‌ने सर्वगुह्यतम उपदेश देते हुए कहा कि तू सम्पूर्ण धर्मोंके आश्रयको छोड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जा, मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्‍त कर दूंगा, तू चिन्ता-शोक मत कर[*] ।’ भगवान्‌की इस बातको सुनकर अर्जुन सर्वथा भगवान्‌की शरण हो गये और उनको अपनी बुद्धिका भरोसा नहीं रहा । अर्जुन बोले कि हे अच्युत ! केवल आपकी कृपासे मेरा मोह सर्वथा नष्ट हो गयाअब मैं केवल आपकी आज्ञाका ही पालन करूँगा’‒करिष्ये वचनं तव (१८ । ७३) । ऐसा कहकर अर्जुन चुप हो गये और भगवान्‌ भी कुछ नहीं बोले अर्थात् अपनी सर्वथा शरण हो जानेपर भगवान्‌को अर्जुनके लिये कोई विषय कहना बाकी नहीं रहा ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] सर्वधर्मान्   परित्यज्य   मामेकं   शरणं   व्रज ।

    अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुवः ॥

(गीता १८ । ६६)

‒यह शरणागतिका मुख्य श्‍लोक है ।