।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें भक्तियोगकी मुख्यता



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ज्ञानयोगी और कर्मयोगीके भीतर अपने कल्याणकी इच्छा रहती है और उसी उद्देश्यसे वे साधनमें लगते है । भक्तियोगी भी आरम्भमें चाहता तो कल्याण ही है, पर जब भगवान्‌में श्रद्धा-भक्ति बढ़ती है, तब उसकी दृष्टि अपने कल्याणकी ओर नहीं रहती, प्रत्युत भगवान्‌की ओर ही रहती है । अतः उसके कल्याणकी जिम्मेवारी भगवान्‌पर ही होती है (१० । ८११; १२ । ६-७; १८ । ६६) ।

गीताके भक्तियोगमें ज्ञानयोग और कर्मयोगकी बात भी आ जाती है; जैसे‒जो अव्यभिचारी भक्तियोगसे मेरा सेवन करता है, वह गुणोंसे अतीत होकर ब्रह्मप्राप्‍तिका पात्र हो जाता है’ (१४ । २६) अर्थात् मनुष्य जैसे ज्ञानयोगसे गुणातीत होता है, ऐसे ही भक्तियोगसे भी गुणातीत हो जाता है । उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये उनके स्वरूपमें रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानस्वरूप दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ’ (१० । ११) अर्थात् भक्तियोगसे भी तत्त्वका बोध (स्वरूपज्ञान) हो जाता है । भगवान्‌ने तेरहवें अध्यायमें जहाँ ज्ञानके साधनोंका वर्णन किया है, वहाँ अपनी अव्यभिचारिणी भक्तिको भी तत्त्वज्ञान होनेमें कारण बताया है (१३ । १०) ।

जो सम्पूर्ण कर्मोंको परमात्माके अर्पण करके करता है, वह जलमें कमलके पत्तेकी तरह पापसे लिप्‍त नहीं होता’ (५ । १०); क्योंकि कमलका पत्ता जलमें रहता हुआ भी निर्लिप्‍त रहता है और निर्लिप्‍त रहता हुआ ही जलमें रहता है । यह कर्मयोगकी बात है, जो भगवान्‌ने कर्मयोगीके लिये भी कही है कि वह कर्म करते हुए भी निर्लिप्‍त रहता है और निर्लिप्‍त रहते हुए ही कर्म करता है (४ । १८) । ऐसे ही सर्वकर्मफलत्यागम्’ (१२ । ११)’ ‘सङ्गवर्जितः’ (११ । ५५) और स्वकर्मणा’ (१८ । ४६) रूपसे कर्मयोगकी बात भक्तियोगमें आ गयी ।

गीतामें ज्ञानयोगसे पराभक्ति (प्रेम)-की प्राप्‍ति (१८ । ५४) और कर्मयोगसे ज्ञानकी प्राप्‍ति (४ । ३८) बतायी गयी है; परन्तु भक्तिसे भगवान्‌के दर्शन, भगवतत्त्वका ज्ञान और भगवत्तत्त्वमें प्रवेश‒ये तीनों हो जाते हैं (११ । ५४) । यह विशेषता भक्तियोगमें ही है, दूसरे योगमें नहीं ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !