।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें भक्तियोगकी मुख्यता



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सर्वाध्यायेषु गीतायां  स्वभक्तिर्गौरवान्विता ।

तस्माद्धि   भगवन्‍निष्ठा   सर्वयोगेषु  सत्तमा ॥

विचारपूर्वक देखा जाय तो गीतामें भगवान्‌ने भक्तिकी बात विशेषरूपसे कही है । जहाँ अर्जुनका भक्तिविषयक प्रश्र नहीं है और जहाँ कर्मयोग, ज्ञानयोग आदिका प्रसंग चल रहा है, वहाँ भी भगवान्‌ने अपनी ओरसे भक्तिकी बात कह दी है; जैसे‒

दूसरे अध्यायमें कर्मयोगकी बात कहते-कहते जहाँ स्थितप्रज्ञके लक्षणोंका वर्णन आया है, वहाँ भगवान्‌ मत्परः’ (२ । ६१) पदसे अपने परायण होनेकी बात कहते हैं । भगवान्‌ भक्तिको अपनी निष्ठा मानते हैं, साधककी निष्ठा नहीं । इसलिये तीसरे अध्यायके तीसरे श्‍लोकमें भगवान्‌ने साधककी दो निष्ठाओं‒सांख्ययोग और कर्मयोगका ही वर्णन किया और भक्तिकी बात अपने मनमें रखी । कर्मयोगका वर्णन करते हुए भगवान्‌ने उसी भक्तिकी बात ‘मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य (३ । ३०) पदोंसे कह दी । चौथे अध्यायमें योगकी परम्परा बताते हुए ‘मैंने ही सृष्टिके आदिमें योगका उपदेश दिया था’इसको भगवान्‌ने परम रहस्यकी बात कही । अतः वहाँ भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्’ (४ । ३) पदोंमें भी भक्ति ही झलकती है । चौथे श्‍लोकमें अर्जुनके प्रश्‍न करनेपर भगवान्‌ने पाँचवें श्‍लोकसे चौदहवें श्‍लोकतक अवतारके प्रसंगमें भक्तिकी बात विशेषतासे कही । फिर पाँचवें अध्यायमें दोनों निष्ठाओंकी बात कहकर पहले दसवें श्‍लोकमें (ब्रह्मण्याध्याय कर्माणि) और फिर उन्तीसवें श्‍लोकमें (भोक्तारं यज्ञतपसां....) अपनी तरफसे भगवन्‍निष्ठाका वर्णन किया ।

छठे अध्यायमें ध्यानयोगका वर्णन करते हुए मच्‍चित्तो युक्त आसीत मत्परः’ (६ । १४); यो मां पश्यति सर्वत्र....’ (६ । ३०); सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः’ (६ । ३१) और श्रद्धावान्भजते यो माम्’ (६ । ४७)‒इन श्‍लोकोंमें भगवान्‌ने भक्तिकी बात कही है । सातवें अध्यायसे लेकर बारहवें अध्यायतक तो मुख्यरूपसे भगवन्‍निष्ठाका ही वर्णन है । तेरहवें अध्यायमें ज्ञानयोगका वर्णन करते हुए ‘मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी’ (१३ । १०) और मद्भक्तः’ (१३ । १८) पदोंसे भक्तिकी बात कही गयी है । फिर चौदहवें अध्यायमें मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते’ (१४ । २६) और ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्....’ (१४ । २७)‒इन श्‍लोकोंमें भक्तिका वर्णन किया गया है । पंद्रहवाँ अध्याय तो भक्तिका है ही । सोलहवें अध्यायमें दैवी सम्पत्तिके रूपमें भक्तियोगके साधकोंके लक्षणोंका वर्णन किया गया है । सत्रहवें अध्यायमें तेईसवें श्‍लोकसे सत्ताईसवें श्‍लोकतक ॐ तत् सत्’इन नामोंके रूपमें भक्तिका वर्णन हुआ है । अठारहवें अध्यायमें स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’ (१८ । ४६) मद्भक्तिं लभते पराम्’ (१८ । ५४) और भक्त्या मामभिजानाति’ (१८ । ५५)‒इन पदोंसे भक्तिकी बात कही गयी है । अठारहवें अध्यायके ही छप्पनवें श्‍लोकसे छाछठवें श्‍लोकतक तो भगवन्‍निष्ठाका ही मुख्यरूपसे वर्णन किया गया है ।