श्रोता‒कोई ऐसा उपाय बतायें कि सुख भी भोगते रहें और भजन भी हो जाय !
स्वामीजी‒ये दो बातें एक साथ चलेंगी नहीं । सुखभोगकी
रुचि रहते हुए परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती । परमात्मप्राप्तिमें बाधा ही
यही है, और बाधा ही क्या है
? आप सुखभोगकी रुचि हटाते
नहीं, परमात्माकी प्राप्ति होती नहीं । दोनोमेंसे एक ही बात होगी
।
कबीर मनुआँ एक है, भावे जिधर लगाय ।
भावे हरि की भगति करे, भावे
विषय कमाय ॥
दोनों काम करोगे तो जीवन चलता रहेगा,
शुभ काम भी होंगे, पर अशुभ कामसे सर्वथा छुटकारा नहीं होगा । जिसके भीतर
भोगोंकी इच्छा रहती है, उसको खतरा रहता है । जहाँ झूठ,
कपट, बेईमानीसे रुपया, भोग मिलता हुआ दीखेगा,
वह झूठ, कपट, बेईमानी कर लेगा । गीतामें अर्जुनने प्रश्न किया है कि
मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है ?
भगवान्ने यही उत्तर दिया है कि भोगोंकी कामनाके वशीभूत
होनेसे वह पाप करता है (गीता ३ । ३६-३७) । तात्पर्य है कि भोगोंमें रुचि रहनेके
कारण मनुष्य पापमें रुचि न होनेपर भी पाप कर बैठता है ।
भोगोंमें रुचि होगी तो मन भोगोंकी तरफ जायगा,
साधनकी तरफ नहीं । उससे भजन होगा ही नहीं । भोगोंकी रुचि
तंग करती रहेगी । इसलिये पहलेसे ही यह बात होनी चाहिये
कि हमारा उद्देश्य भोगोंका नहीं है, हमें
तो परमात्माको ही प्राप्त करना है ।
भोगोंकी प्राप्ति चाहना पतनका रास्ता है और परमात्माकी
प्राप्ति चाहना उत्थानका रास्ता है । दोनों रास्ते अलग-अलग हैं । अगर परमात्माकी
प्राप्ति चाहते हो तो भोगोंकी इच्छाको मिटाओ । कम-से-कम,
कम-से-कम, कम-से-कम इतना भाव तो होना ही चाहिये कि हमें भोगोंकी
इच्छाको मिटाना है । भोग और संग्रहमें लगा हुआ मनुष्य ‘मुझे परमात्माकी प्राप्ति करनी है’‒यह निश्चय भी नहीं कर सकता ! जिनका उद्देश्य
परमात्मप्राप्तिका है, उनको भी सुखभोगकी इच्छा ही बाधा देती है । भोग रागपूर्वक ही
भोगे जाते हैं । रागके बिना भोग नहीं भोगे जाते । फिर रागके रहते हुए परमात्मामें
अनुराग कैसे होगा ?
अगर भोगोंकी इच्छा सर्वथा मिट जाय तो साधक नहीं
रहेगा, सिद्ध हो जायगा । साधक तभीतक है, जबतक भोगोंकी इच्छा है । भगवान्की इच्छा मुख्य होगी तो
साधन करनेसे जरूर लाभ होगा । वह ज्यों-ज्यों साधन करेगा,
त्यों-त्यों उसको पहलेकी अपेक्षा भोगोंका त्याग करनेमें
सुगमता मालूम होगी । इसमें सबसे बढ़िया चीज सत्संग है ।
सतां
प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो
भवन्ति हृत्कर्णरसायनाः कथाः ।
तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि
श्रद्धा
रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥
(श्रीमद्भा॰ ३ । २५ । २५)
‘संतोंके संगसे मेरे पराक्रमोंका यथार्थ ज्ञान करानेवाली तथा हृदय और कानोंको
प्रिय लगनेवाली कथाएँ होती हैं । उनका सेवन करनेसे शीघ्र ही मोक्षमार्गमें श्रद्धा, प्रेम और भक्तिका क्रमशः विकास होगा ।’
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