श्रोता‒परमात्मप्राप्ति अथवा मुक्तिका क्या मतलब है ? क्या
जीते-जी मुक्ति, भगवान्की
प्राप्ति, उनके दर्शन हो
सकते हैं ?
स्वामीजी‒हाँ, हो सकते हैं । मुक्ति अथवा मोक्षका अर्थ है‒छूटना । मुक्ति होनेपर मनुष्य काम,
क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, दम्भ, पाखण्ड आदि जो संसारके बन्धन हैं,
उनसे सर्वथा छूट जाता है । ऐसी
मुक्ति जीते-जी, शरीरके रहते-रहते हो सकती है । राम, कृष्ण, विष्णु
आदिके दर्शन भी जीते-जी हो सकते हैं । गोस्वामी तुलसीदासजी, सूरदासजी आदि कई सन्तोंको भगवान्के दर्शन हुए हैं ।
आप पूछ सकते हैं कि इसमें प्रमाण क्या है
? तो इसका प्रमाण आप सभी हैं
। आप सत्संग करते हैं तो सत्संगसे शान्ति मिलती है कि नहीं
? काम-क्रोधादि दोष कम होते
हैं कि नहीं ? सत्संग करनेवाले कई भाई-बहनोंसे मेरी बात हुई है,
और उन्होंने कहा है कि ‘उनके काम-क्रोधादि दोष कम हुए हैं । पहले जैसे दोष थे,
वैसे अब नहीं रहे हैं । सत्संग करनेसे फर्क तो बहुत पड़ा है,
पर दोष सर्वथा नष्ट नहीं हुए हैं ।’ जब फर्क पड़ा है तो सर्वथा नष्ट भी हो सकते
हैं । कारण कि यह नियम है कि जो चीज घटती है, वह
मिटनेवाली होती है । जो मिटनेवाली नहीं होती, वह
घटनेवाली भी नहीं होती । सच्चे हृदयसे सत्संग करनेवालोंमें काम-क्रोधादि विकार जरूर कम होते ही हैं,
यह नियम है । अगर कम नहीं हुए हैं तो असली सत्संग मिला नहीं
है अथवा हमने ठीक तरहसे सत्संग किया नहीं है । आप ठीक तरहसे देखें तो आपको अपने
जीवनमें परिवर्तन मालूम होगा । अगर सत्संगसे कुछ लाभ नहीं होता तो सब लोग इतने
बेसमझ थोड़े ही हैं कि घरका काम-धंधा छोड़कर,
यहाँ आकर अपना समय खर्च करें !
आपको विकारोंके अभावका,
आने-जानेका तो अनुभव होता है,
पर अपने अभावका अनुभव कभी नहीं होता । जैसे,
सुषुप्तिमें सबके अभावका और अपने भावका अनुभव सबको होता है
। इस प्रकार विचार करनेसे भी सिद्ध होता है कि मुक्ति होती है ।
भगवान्के दर्शन किये हुए आदमी भी मिलते हैं । दर्शनोंके
विषयमें कई मतभेद हैं । दर्शन सबको बराबर नहीं होते । दर्शन होनेपर भी कइयोंकी
वृत्ति हरदम ठीक नहीं रहती, कइयोंकी वृत्ति हरदम ठीक रहती है ।
मनुष्य जीते-जी मुक्त हो सकता है । मरनेके बाद
मुक्ति होगी‒इसका क्या पता ?
श्रोता‒विकार तो अन्तःकरणके धर्म हैं; अतः
ये कैसे शान्त हो सकते हैं ?
स्वामीजी‒विकार अन्तःकरणके धर्म नहीं हैं । धर्म हरदम रहता है,
जबकि विकार आते-जाते रहते हैं । यदि विकार अन्तःकरणके धर्म
होते तो जबतक अन्तःकरण रहता, तबतक विकार भी रहते ।
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