।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७७ गुरुवार
पुत्रदा एकादशी-व्रत
भगवद्भक्तिका रहस्य


भक्ति  भक्त भगवंत गुरु चतुर नाम बपु एक ।
इनके  पद  बंदन किएँ  नासत  बिघ्न  अनेक ॥

(१) भक्तिका मार्ग बतानेवाले संत ‘गुरु’, (२) भजनीय ‘भगवान्‌’, (३) भजन करनेवाले ‘भक्त’ तथा (४) संतोंके उपदेशके अनुसार भक्तकी भगवदाकार वृत्ति ‘भक्ति’ है । नामसे चार हैं, किन्तु तत्त्वतः एक ही हैं ।

जो साधक दृढ़ता और तत्परताके साथ भगवान्‌के नामका जप और स्वरूपका ध्यानरूप भक्ति करते हुए तेजीसे चलता है, वही भगवान्‌को शीघ्र प्राप्त कर लेता है ।

जो जिव चाहे मुक्तिको तो सुमरीजे राम ।
हरिया  गैलै  चालताँ   जैसे  आवे  गाम ॥

(१) इस भगवद्भक्तिकी प्राप्तिके अनेक साधन बताये गये हैं । उन साधनोंमें मुख्य हैसंत-महात्माओंकी कृपा और उनका संग । रामचरितमानसमें कहा है–

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी ।
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ॥
×     ×     ×
भक्ति तात अनुपम सुख मूला ।
मिलइ जो संत होइ अनुकूला ॥

उन संतोंका मिलन भगवत्कृपासे ही होता है । श्रीगोस्वामीजी कहते हैं

संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही ।
 चितवहिं राम कृपा करि जेही ॥
.......................... । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥
.................................. । सतसंगति संसृति कर अंता ॥

असली भगवत्प्रेमका नाम ही भक्ति है । कहा भी है

पन्नगारि  सुनु  प्रेम  सम    भजन  न  दूसर  आन ।
असि बिचारि पुनि पुनि मुनि करत राम गुन गान ॥

इस प्रकारके प्रेमकी प्राप्ति संतोंके संगसे अनायास ही हो जाती है; क्योंकि संत-महात्माओंके यहाँ परम प्रभु परमेश्वरके गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्यकी कथाएँ होती रहती हैं । उनके यहाँ यही प्रसंग चलता रहता है । भगवान्‌की कथा जीवोंके अनेक जन्मोंसे किये हुए अनन्त पापोंकी राशिका नाश करनेवाली एवं हृदय और कानोंको अतीव आनन्द देनेवाली होती है । जीवको यज्ञ, दान, तप, व्रत, तीर्थ आदि बहुत परिश्रम-साध्य पुण्य-साधनोंके द्वारा भी वह लाभ नहीं होता, जो सत्संगसे अनायास ही हो जाता है; क्योंकि प्रेमी संत-महात्माओंके द्वारा कथित भगवत्कथाके श्रवणसे जीवोंके पापोंका नाश हो जाता है । इससे अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल होकर भगवान्‌के चरणकमलोंमें सहज ही श्रद्धा और प्रीति उत्पन्न हो जाती है । भक्तिका मार्ग बतानेवाले संत-महात्मा ही भक्तिमार्गके गुरु हैं । इनके लक्षणोंका वर्णन करते हुए श्रीमद्भागवतमें कहा है–

कृपालुरकृतद्रोहस्तितिक्षुः           सर्वदेहिनाम् ।
सत्यसारोऽनवद्यात्मा      समः    सर्वोपकारकः ॥
कामैरहतधीर्दान्तो        मृदुः      शुचिरकिञ्चन ।
अनीहो मितभुक् शान्तः स्थिरो मच्छरणो मुनिः ॥
         अप्रमत्तो    गभीरात्मा     धृतिमाञ्जितषड्गुणः ।
अमानी मानदः कल्पो  मैत्रः  कारुणिकः  कविः ॥
                                                                (११/११/२९-३१)

‘भगवान्‌का भक्त कृपालु, सम्पूर्ण प्राणियोंमें वैरभावसे रहित, कष्टोंको प्रसन्नतापूर्वक सहन करनेवाला, सत्यजीवन, पापशून्य, समभाववाला, समस्त जीवोंका सुहृद्, कामनाओंसे कभी आक्रान्त न होनेवाली शुद्ध बुद्धिसे सम्पन्न, संयमी, कोमल-स्वभाव, पवित्र, पदार्थोंमें आसक्ति और ममतासे रहित, व्यर्थ और निषिद्ध चेष्टाओंसे शून्य, हित-मित-मेध्य-भोजी, शान्त, स्थिर, भगवत्परायण, मननशील, प्रमादरहित, गंभीर स्वभाव, धैर्यवान्, काम-क्रोध-लोभ-मोह-मत्सररूप छः विकारोंको जीता हुआ, मानरहित, सबको मान देनेवाला, भगवान्‌के ज्ञान-विज्ञानमें निपुण, सबके साथ मैत्रीभाव रखनेवाला, करुणाशील और तत्त्वज्ञ होता है ।’


ऐसे भगवद्भक्त ही वास्तवमें भक्तिमार्गके प्रदर्शक हो सकते हैं ।