।। श्रीहरिः ।।

  


  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒जिनके लिये हम राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे लोग कौन हैं‒इसका वर्णन अर्जुन आगेके दो श्‍लोकोंमें करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒स्वयंके मारे जानेपर अथवा त्रिलोकीका राज्य मिलनेपर भी स्वजनोंको मारनेका निषेध ।

 आचार्याः   पितरः    पुत्रास्तथैव   च   पितामहाः ।

 मातुलाः श्‍वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥ ३४ ॥

 एतान्‍न    हन्तुमिच्छामि     घ्‍नतोऽपि    मधुसूदन ।

 अपि   त्रैलोक्यराज्यस्य   हेतोः   किं  नु  महीकृते ॥ ३५ ॥

आचार्याः = आचार्य,

अपि = भी (मैं)

पितरः = पिता

एतान् = इनको

पुत्राः = पुत्र

हन्तुम् = मारना

च = और

न = नहीं

तथा, एव = उसी प्रकार

इच्छामि = चाहता, (और)

पितामहाः = पितामह,

मधुसूदन = हे मधुसूदन ! (मुझे)

मातुलाः = मामा

त्रैलोक्यराज्यस्य = त्रिलोकीका राज्य

श्‍वशुराः = ससुर,

हेतोः = मिलता हो

पौत्राः = पौत्र

अपि = तो भी (मैं इनको मारना नहीं चाहता)

श्यालाः = साले

नु = फिर

तथा = तथा (अन्य जितने भी)

महीकृते = पृथ्वीके लिये तो (मैं इनको मारूँ ही)

सम्बन्धिनः = सम्बन्धी हैं, (मुझपर)

किम् = क्या ?

घ्‍नतः = प्रहार करनेपर

 

१.छब्बीसवें श्‍लोकमें पितॄनथ पितामहान्.........’ कहकर सबसे पहले पिताओं और पितामहोंका नाम लिया गया है, और यहाँ आचार्याः पितरः.....’ कहकर सबसे पहले आचार्योंका नाम लिया गया है । इसका तात्पर्य है कि वहाँ तो कौटुम्बिक स्‍नेहकी मुख्यता है, इसलिये वहाँ पिताका नाम सबसे पहले लिया है; और यहाँ न मारनेका विषय चल रहा है, इसलिये यहाँ सबसे पहले आदरणीय पूज्य आचार्यों‒गुरुजनोंका नाम लिया है, जो कि जीवके परम हितैषी होते हैं ।

व्याख्या‒[ भगवान् आगे सोलहवें अध्यायके इक्‍कीसवें श्‍लोकमें कहेंगे कि काम, क्रोध और लोभ‒ये तीनों ही नरकके द्वार हैं । वास्तवमें एक कामके ही ये तीन रूप हैं । ये तीनों सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदिको महत्त्व देनेसे पैदा होते हैं । काम अर्थात् कामनाकी दो तरहकी क्रियाएँ होती हैं‒इष्‍टकी प्राप्‍ति और अनिष्‍टकी निवृत्ति । इनमेंसे इष्‍टकी प्राप्‍ति भी दो तरहकी होती है‒संग्रह करना और सुख भोगना । संग्रहकी इच्छाका नाम लोभ’ है और सुखभोगकी इच्छाका नाम काम’ है । अनिष्‍टकी निवृत्तिमें बाधा पड़नेपर क्रोध’ आता है अर्थात् भोगोंकी, संग्रहकी प्राप्‍तिमें बाधा देनेवालोंपर अथवा हमारा अनिष्‍ट करनेवालोंपर, हमारे शरीरका नाश करनेवालोंपर क्रोध आता है, जिससे अनिष्‍ट करनेवालोंका नाश करनेकी क्रिया होती है । इससे सिद्ध हुआ कि युद्धमें मनुष्यकी दो तरहसे ही प्रवृत्ति होती है‒अनिष्‍टकी निवृत्तिके लिये अर्थात् अपने क्रोध’ को सफल बनानेके लिये और इष्‍टकी प्राप्‍तिके लिये अर्थात् लोभ’ की पूर्तिके लिये । परन्तु अर्जुन यहाँ इन दोनों ही बातोंका निषेध कर रहे हैं । ]

आचार्याः पितरः......किं नु महीकृते’अगर हमारे ये कुटुम्बीजन अपनी अनिष्‍ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर मेरेपर प्रहार करके मेरा वध भी करना चाहें, तो भी मैं अपनी अनिष्‍ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर इनको मारना नहीं चाहता । अगर ये अपनी इष्‍टप्राप्‍तिके लिये राज्यके लोभमें आकर मेरेको मारना चाहें, तो भी मैं अपनी इष्‍ट-प्राप्‍तिके लिये लोभमें आकर इनको मारना नहीं चाहता । तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध और लोभमें आकर मेरेको नरकोंका दरवाजा मोल नहीं लेना है ।

यहाँ दो बार अपि’ पदका प्रयोग करनेमें अर्जुनका आशय यह है कि मैं इनके स्वार्थमें बाधा ही नहीं देता तो ये मुझे मारेंगे ही क्यों ? पर मान लो कि पहले इसने हमारे स्वार्थमें बाधा दी है’ ऐसे विचारसे ये मेरे शरीरका नाश करनेमें प्रवृत्त हो जायँ, तो भी (घ्‍नतोऽपि) मैं इनको मारना नहीं चाहता । दूसरी बात, इनको मारनेसे मुझे त्रिलोकीका राज्य मिल जाय, यह तो सम्भावना ही नहीं है, पर मान लो कि इनको मारनेसे मुझे त्रिलोकीका राज्य मिलता हो, तो भी (अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः) मैं इनको मारना नहीं चाहता ।

मधुसूदन’ सम्बोधनका तात्पर्य है कि आप तो

२. ‘मधु’ नामक दैत्यको मारनेके कारण भगवान्‌का नाम ‘मधुसूदन’ पड़ा था ।

दैत्योंको मारनेवाले हैं, पर ये द्रोण आदि आचार्य और भीष्म आदि पितामह दैत्य थोड़े ही हैं, जिससे मैं इनको मारनेकी इच्छा करूँ ? ये तो हमारे अत्यन्त नजदीकके खास सम्बन्धी हैं ।

आचार्याः’इन कुटुम्बियोंमें जिन द्रोणाचार्य आदिसे हमारा विद्याका, हितका सम्बन्ध है, ऐसे पूज्य आचार्योंकी मेरेको सेवा करनी चाहिये कि उनके साथ लड़ाई करनी चाहिये ? आचार्यके चरणोंमें तो अपने-आपको, अपने प्राणोंको भी समर्पित कर देना चाहिये । यही हमारे लिये उचित है ।

पितरः’शरीरके सम्बन्धको लेकर जो पितालोग हैं, उनका ही तो रूप यह हमारा शरीर है । शरीरसे उनके स्वरूप होकर हम क्रोध या लोभमें आकर अपने उन पिताओंको कैसे मारें ?

पुत्राः’हमारे और हमारे भाइयोंके जो पुत्र हैं, वे तो सर्वथा पालन करनेयोग्य हैं । वे हमारे विपरीत कोई क्रिया भी कर बैठें, तो भी उनका पालन करना ही हमारा धर्म है ।

पितामहाः’ऐसे ही जो पितामह हैं, वे जब हमारे पिताजीके भी पूज्य हैं, तब हमारे लिये तो परमपूज्य हैं ही । वे हमारी ताड़ना कर सकते हैं, हमें मार भी सकते हैं । पर हमारी तो ऐसी ही चेष्‍टा होनी चाहिये, जिससे उनको किसी तरहका दुःख न हो, कष्‍ट न हो, प्रत्युत उनको सुख हो, आराम हो, उनकी सेवा हो ।

मातुलाः’हमारे जो मामालोग हैं, वे हमारा पालन-पोषण करनेवाली माताओंके ही भाई हैं । अतः वे माताओंके समान ही पूज्य होने चाहिये ।

श्‍वशुराः’ये जो हमारे ससुर हैं, ये मेरी और मेरे भाइयोंकी पत्‍नियोंके पूज्य पिताजी हैं । अतः ये हमारे लिये भी पिताके ही तुल्य हैं । इनको मैं कैसे मारना चाहूँ ?

पौत्राः’हमारे पुत्रोंके जो पुत्र हैं, वे तो पुत्रोंसे भी अधिक पालन-पोषण करनेयोग्य हैं ।

श्यालाः’हमारे जो साले हैं, वे भी हमलोगोंकी पत्‍नियोंके प्यारे भैया हैं । उनको भी कैसे मारा जाय !

सम्बन्धिनः’ये जितने सम्बन्धी दीख रहे हैं और इनके अतिरिक्त जितने भी सम्बन्धी हैं, उनका पालन-पोषण, सेवा करनी चाहिये कि उनको मारना चाहिये ? इनको मारनेसे अगर हमें त्रिलोकीका राज्य भी मिल जाय, तो भी क्या इनको मारना उचित है ? इनको मारना तो सर्वथा अनुचित है ।

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