।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०८०, गुरुवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒जिसमें न तो शुभ शकुन दीखते हैं और न श्रेय ही दीखता है, ऐसी अनिष्‍टकारक विजयको प्राप्‍त करनेकी अनिच्छा अर्जुन आगेके श्‍लोकमें प्रकट करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒अर्जुनद्वारा विजय, राज्य आदिको प्राप्‍त करनेकी अनिच्छा प्रकट करना ।

      न काङ्क्षे विजयं कृष्ण  न च राज्यं सुखानि च ।

      किं नो  राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥ ३२ ॥

कृष्ण = हे कृष्ण ! (मैं)

गोविन्द = हे गोविन्द !

न = न (तो)

नः = हमलोगोंको

विजयम् = विजय

राज्येन = राज्यसे

काङ्क्षे = चाहता हूँ,

किम् = क्या लाभ

न = न

भोगैः = भोगोंसे (क्या लाभ ?)

राज्यम् = राज्य (चाहता हूँ)

वा = अथवा

च = और

जीवितेन = जीनेसे (भी)

न = न

किम् = क्या लाभ ?

सुखानि = सुखोंको (ही चाहता हूँ) ।

 

व्याख्या‘न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च’मान लें कि युद्धमें हमारी विजय हो जाय, तो विजय होनेसे पूरी पृथ्वीपर हमारा राज्य हो जायगा, अधिकार हो जायगा । पृथ्वीका राज्य मिलनेसे हमें अनेक प्रकारके सुख मिलेंगे । परन्तु इनमेंसे मैं कुछ भी नहीं चाहता अर्थात् मेरे मनमें विजय, राज्य एवं सुखोंकी कामना नहीं है ।

‘किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा’जब हमारे मनमें किसी प्रकारकी (विजय, राज्य और सुखकी) कामना ही नहीं है, तो फिर कितना ही बड़ा राज्य क्यों न मिल जाय, पर उससे हमें क्या लाभ ? कितने ही सुन्दर-सुन्दर भोग मिल जायँ, पर उनसे हमें क्या लाभ ? अथवा कुटुम्बियोंको मारकर हम राज्यके सुख भोगते हुए कितने ही वर्ष जीते रहे, पर उससे भी हमें क्या लाभ ? तात्पर्य है कि ये विजय, राज्य और भोग तभी सुख दे सकते हैं, जब भीतरमें इनकी कामना हो, प्रियता हो, महत्त्व हो । परन्तु हमारे भीतर तो इनकी कामना ही नहीं है । अतः ये हमें क्या सुख दे सकते हैं ? इन कुटुम्बियोंको मारकर हमारी जीनेकी भी इच्छा नहीं है; क्योंकि जब हमारे कुटुम्बी मर जायँगे, तब ये राज्य और भोग किसके काम आयेंगे ? राज्य, भोग आदि तो कुटुम्बके लिये होते हैं, पर जब ये ही मर जायँगे, तब इनको कौन भोगेगा ? भोगनेकी बात तो दूर रही, उलटे हमें और अधिक चिन्ता, शोक होंगे !

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सम्बन्ध‒अर्जुन विजय आदि क्यों नहीं चाहते, इसका हेतु आगेके श्‍लोकमें बताते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒स्वजनोंके बिना राज्य आदिको निरर्थक बताना ।

   येषामर्थे काङ्क्षितं  नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।

 त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ ३३ ॥

येषाम् = जिनके

ते = वे (ही)

अर्थे = लिये

इमे = ये सब (अपने)

नः = हमारी

प्राणान् = प्राणोंकी

राज्यम् = राज्य,

च = और

भोगाः = भोग

धनानि = धनकी आशाका

च = और

त्यक्त्वा = त्याग करके

सुखानि = सुखकी

युद्धे = युद्धमें

काङ्क्षितम् = इच्छा है,

अवस्थिताः = खड़े हैं ।

व्याख्या‘येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च’हम राज्य, सुख, भोग आदि जो कुछ चाहते हैं, उनको अपने व्यक्तिगत सुखके लिये नहीं चाहते, प्रत्युत इन कुटुम्बियों, प्रेमियों, मित्रों आदिके लिये ही चाहते हैं । आचार्यों, पिताओं, पितामहों, पुत्रों आदिको सुख-आराम पहुँचे, इनकी सेवा हो जाय, ये प्रसन्‍न रहें‒इसके लिये ही हम युद्ध करके राज्य लेना चाहते हैं, भोग-सामग्री इकट्ठी करना चाहते हैं ।

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च’पर वे ही ये सब-के-सब अपने प्राणोंकी और धनकी आशाको छोड़कर युद्ध करनेके लिये हमारे सामने इस रणभूमिमें खड़े हैं । इन्होंने ऐसा विचार कर लिया है कि हमें न प्राणोंका मोह है और न धनकी तृष्णा है; हम मर बेशक जायँ, पर युद्धसे नहीं हटेंगे । अगर ये सब मर ही जायँगे, तो फिर हमें राज्य किसके लिये चाहिये ? सुख किसके लिये चाहिये ? धन किसके लिये चाहिये ? अर्थात् इन सबकी इच्छा हम किसके लिये करें ?

प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च’ का तात्पर्य है कि वे प्राणोंकी और धनकी आशाका त्याग करके खड़े हैं अर्थात् हम जीवित रहेंगे और हमें धन मिलेगा‒इस इच्छाको छोड़कर वे खड़े हैं । अगर उनमें प्राणोंकी और धनकी इच्छा होती, तो वे मरनेके लिये युद्धमें क्यों खड़े होते ? अतः यहाँ प्राण और धनका त्याग करनेका तात्पर्य उनकी आशाका त्याग करनेमें ही है ।

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