Listen प्रधान विषय‒२८—४७‒अर्जुनके द्वारा कायरता, शोक और पश्चात्तापयुक्त
वचन कहना तथा संजय द्वारा शोकाविष्ट अर्जुनकी अवस्थाका वर्णन । सूक्ष्म विषय‒२९-३०‒अर्जुनकी कायरताके आठ लक्षण । अर्जुन
उवाच दृष्ट्वेमं स्वजनं
कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥ २८ ॥ सीदन्ति
मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति । वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च
जायते ॥ २९ ॥ गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते । न च
शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥ ३० ॥ अर्जुन बोले‒
व्याख्या‒‘दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं
समुपस्थितम्’‒अर्जुनको ‘कृष्ण’ नाम बहुत प्रिय था । यह सम्बोधन गीतामें नौ बार आया है । भगवान्
श्रीकृष्णके लिये दूसरा कोई सम्बोधन इतनी बार नहीं आया है । ऐसे ही भगवान्को अर्जुनका
‘पार्थ’
नाम बहुत प्यारा था । इसलिये भगवान् और अर्जुन आपसकी बोलचालमें
ये नाम लिया करते थे और यह बात लोगोंमें भी प्रसिद्ध थी । इसी दृष्टिसे संजयने गीताके
अन्तमें ‘कृष्ण’
और ‘पार्थ’ नामका उल्लेख किया है‒‘यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः’
(१८ ।
७८) । धृतराष्ट्रने पहले ‘समवेता युयुत्सवः’ कहा था और
यहाँ अर्जुनने भी ‘युयुत्सुं समुपस्थितम्’
कहा है; परन्तु दोनोंकी दृष्टियोंमें बड़ा अन्तर है । धृतराष्ट्रकी
दृष्टिमें तो दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि पाण्डुके पुत्र हैं‒ऐसा
भेद है;
अतः धृतराष्ट्रने वहाँ ‘मामकाः’ और ‘पाण्डवाः’ कहा है । परन्तु अर्जुनकी दृष्टिमें यह भेद नहीं है;
अतः अर्जुनने यहाँ ‘स्वजनम्’ कहा है, जिसमें दोनों पक्षके लोग आ जाते हैं । तात्पर्य है कि
धृतराष्ट्रको तो युद्धमें अपने पुत्रोंके मरनेकी आशंकासे भय है,
शोक है; परन्तु अर्जुनको दोनों ओरके कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे शोक
हो रहा है कि किसी भी तरफका कोई भी मरे, पर वह है तो हमारा ही कुटुम्बी । अबतक ‘दृष्ट्वा’ पद तीन बार आया है‒‘दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम्’ (१ ।
२), ‘व्यवस्थितान्दृष्ट्वा
धार्तराष्ट्रान्’ (१ । २०) और यहाँ ‘दृष्ट्वेमं स्वजनम्’ (१ ।
२८) । इन तीनोंका तात्पर्य है कि
दुर्योधनका देखना तो एक तरहका ही रहा अर्थात् दुर्योधनका तो युद्धका ही एक भाव रहा;
परन्तु अर्जुनका देखना दो तरहका हुआ । पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्रके
पुत्रोंको देखकर वीरतामें आकर युद्धके लिये धनुष उठाकर खड़े हो जाते हैं और अब स्वजनोंको
देखकर कायरतासे आविष्ट हो रहे हैं, युद्धसे उपरत हो रहे हैं और उनके हाथसे धनुष गिर रहा है । ‘सीदन्ति
मम गात्राणि.......भ्रमतीव च मे मनः’‒अर्जुनके मनमें युद्धके भावी परिणामको लेकर चिन्ता हो रही है,
दुःख हो रहा है । उस चिन्ता, दुःखका असर अर्जुनके सारे शरीरपर पड़ रहा है । उसी असरको अर्जुन
स्पष्ट शब्दोंमें कह रहे हैं कि मेरे शरीरका हाथ, पैर, मुख आदि एक-एक अंग (अवयव) शिथिल हो रहा है ! मुख सूखता जा रहा
है,
जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है ! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है
! शरीरके सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमांचित हो रहा है ! जिस गाण्डीव
धनुषकी प्रत्यंचाकी टंकारसे शत्रु भयभीत हो जाते हैं,
वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथसे गिर रहा है ! त्वचामें‒सारे
शरीरमें जलन हो रही है१ । १.चिन्ता
चितासमा ह्युक्ता बिन्दुमात्रं विशेषतः । सजीवं दहते चिन्ता
निर्जीवं
दहते चिता ॥ ‘चिन्ताको चिताके समान कहा गया है, केवल एक बिन्दुकी ही अधिकता है । चिन्ता जीवित
पुरुषको जलाती है और चिता मरे हुए पुरुषको जलाती है ।’ मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरेको क्या करना चाहिये‒यह
भी नहीं सूझ रहा है ! यहाँ युद्धभूमिमें रथपर खड़े रहनेमें भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ
! ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा ! ऐसे अनर्थकारक युद्धमें खड़ा रहना
भी एक पाप मालूम दे रहा है । രരരരരരരരരര सम्बन्ध‒पूर्वश्लोकमें अपने शरीरके शोकजनित आठ चिह्नोंका वर्णन करके
अब अर्जुन भावी परिणामके सूचक शकुनोंकी दृष्टिसे युद्ध करनेका अनौचित्य बताते हैं
। सूक्ष्म विषय‒शकुनोंको विपरीत देखकर अर्जुनका युद्धके परिणाममें अपना
हित न देखना । निमित्तानि
च पश्यामि विपरीतानि केशव । न
च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥ ३१ ॥
व्याख्या‒‘निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव’‒हे केशव ! मैं शकुनोंको२ भी विपरीत ही देख २. जितने भी शकुन होते हैं, वे किसी अच्छी या बुरी घटनाके होनेमें निमित्त नहीं होते अर्थात् वे किसी घटनाके
निर्माता नहीं होते, प्रत्युत भावी घटनाकी सूचना देनेवाले होते हैं । शकुन बतानेवाले प्राणी भी वास्तवमें शकुनोंको बताते नहीं हैं; किन्तु उनकी स्वाभाविक चेष्टासे शकुन सूचित होते हैं । रहा हूँ । तात्पर्य है कि किसी भी कार्यके आरम्भमें मनमें जितना
अधिक उत्साह (हर्ष) होता है, वह उत्साह उस कार्यको उतना ही सिद्ध करनेवाला होता है
। परन्तु अगर कार्यके आरम्भमें ही उत्साह भंग हो जाता है,
मनमें संकल्प-विकल्प ठीक नहीं होते,
तो उस कार्यका परिणाम अच्छा नहीं होता । इसी भावसे अर्जुन कह
रहे हैं कि अभी मेरे शरीरमें अवयवोंका शिथिल होना, कम्प होना, मुखका सूखना आदि जो लक्षण हो रहे हैं,
ये व्यक्तिगत शकुन भी ठीक नहीं हो रहे है३ । इसके सिवाय आकाशसे ३.यद्यपि
अर्जुन शरीरमें होनेवाले लक्षणोंको भी शकुन मान रहे हैं, तथापि वास्तवमें ये शकुन नहीं
हैं । ये तो शोकके कारण इन्द्रियाँ, शरीर, मन, बुद्धिमें होनेवाले विकार हैं । उल्कापात होना, असमयमें ग्रहण लगना, भूकम्प होना, पशु-पक्षियोंका भयंकर बोली बोलना,
चन्द्रमाके काले चिह्नका मिट-सा जाना,
बादलोंसे रक्तकी वर्षा होना आदि जो पहले शकुन हुए हैं,
वे भी ठीक नहीं हुए हैं । इस तरह अभीके और पहलेके‒इन दोनों शकुनोंकी
ओर देखता हूँ, तो मेरेको ये दोनों ही शकुन विपरीत अर्थात् भावी अनिष्टके सूचक दीखते
हैं । ‘न च
श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे’‒युद्धमें अपने कुटुम्बियोंको मारनेसे हमें कोई लाभ होगा‒ऐसी
बात भी नहीं है । इस युद्धके परिणाममें हमारे लिये लोक और परलोक‒दोनों ही हितकारक नहीं
दीखते । कारण कि जो अपने कुलका नाश करता है, वह अत्यन्त पापी होता है । अतः कुलका नाश करनेसे हमें पाप ही
लगेगा,
जिससे नरकोंकी प्राप्ति होगी । इस श्लोकमें ‘निमित्तानि पश्यामि’
और ‘श्रेयः अनुपश्यामि’४‒इन दोनों वाक्योंसे अर्जुन
यह कहना चाहते हैं कि मैं शकुनोंको देखूँ अथवा स्वयं विचार करूँ,
दोनों ही रीतिसे युद्धका आरम्भ और उसका परिणाम हमारे लिये और
संसारमात्रके लिये हितकारक नहीं दीखता । ४. यहाँ ‘पश्यामि’ क्रिया भूत और वर्तमानके शकुनोंके विषयमें और ‘अनुपश्यामि’ क्रिया भविष्यके परिणामके विषयमें आयी है ।
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