।। श्रीहरिः ।।

  


  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०८०, मंगलवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒पूर्वश्‍लोकमें भगवान्‌ने अर्जुनसे कुरुवंशियोंको देखनेके लिये कहा । उसके बाद क्या हुआ‒इसका वर्णन संजय आगेके श्‍लोकोंमें करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒२६२८‒दोनों सेनाओंमें स्थित स्वजनोंको देखकर अर्जुनका मोहित होना और विषादयुक्त वचन बोलना ।

   तत्रापश्यत्‍स्‍थितान्पार्थः   पितॄनथ  पितामहान् ।

आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥ २६ ॥

   श्‍वशुरान्सुहृदश्‍चैव             सेनयोरुभयोरपि ।

अथ = उसके बाद

भ्रातॄन् = भाइयोंको,

पार्थः = पृथानन्दन अर्जुनने

पुत्रान् = पुत्रोंको,

तत्र = उन

पौत्रान् = पौत्रोंको

उभयोः = दोनों

तथा = तथा

एव = ही

सखीन् = मित्रोंको,

सेनयोः = सेनाओंमें

श्‍वशुरान् = ससुरोंको

स्थितान् = स्थित

च = और

पितॄन = पिताओंको,

सुहृदः = सुहृदोंको

पितामहान् = पितामहोंको,

अपि = भी

आचार्यान् = आचार्योंको,

अपश्यत् = देखा ।

मातुलान् = मामाओंको,

 

व्याख्या‘तत्रापश्यत्..........सेनयोरुभयोरपि’जब भगवान्‌ने अर्जुनसे कहा कि इस रणभूमिमें इकट्ठे हुए कुरुवंशियोंको देख, तब अर्जुनकी दृष्‍टि दोनों सेनाओंमें स्थित अपने कुटुम्बियोंपर गयी । उन्होंने देखा कि उन सेनाओंमें युद्धके लिये अपने-अपने स्थानपर भूरिश्रवा आदि पिताके भाई खड़े हैं, जो कि मेरे लिये पिताके समान हैं । भीष्म, सोमदत्त आदि पितामह खड़े हैं । द्रोण, कृप आदि आचार्य (विद्या पढ़ानेवाले और कुलगुरु) खड़े हैं ।

पुरुजित् कुन्तिभोज, शल्य, शकुनि आदि मामा खड़े हैं । भीम, दुर्योधन आदि भाई खड़े हैं । अभिमन्यु, घटोत्कच, लक्ष्मण (दुर्योधनका पुत्र) आदि मेरे और मेरे भाइयोंके पुत्र खड़े हैं । लक्ष्मण आदिके पुत्र खड़े हैं, जो कि मेरे पौत्र हैं । दुर्योधनके अश्‍वत्थामा आदि मित्र खड़े हैं और ऐसे ही अपने पक्षके मित्र भी खड़े हैं । द्रुपद, शैब्य आदि ससुर खड़े हैं । बिना किसी हेतुके अपने-अपने पक्षका हित चाहनेवाले सात्यकि, कृतवर्मा आदि सुहृद् भी खड़े हैं ।

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सम्बन्ध‒अपने सब कुटुम्बियोंको देखनेके बाद अर्जुनने क्या किया‒इसको आगेके श्‍लोकमें कहते हैं ।

    तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥ २७ ॥

     कृपया     परयाविष्‍टो     विषीदन्‍निदमब्रवीत् ।

अवस्थितान् = अपनी-अपनी जगहपर स्थित

परया = अत्यन्त

तान् = उन

कृपया = कायरतासे

सर्वान् = सम्पूर्ण

आविष्‍टः = युक्त होकर

बन्धून् = बान्धवोंको

विषीदन् = विषाद करते हुए

समीक्ष्य = देखकर

इदम् = ऐसा

सः = वे

अब्रवीत् = बोले ।

कौन्तेयः = कुन्तीनन्दन अर्जुन

 

व्याख्या‘तान् सर्वान्बन्धूनवस्थितान् समीक्ष्य’पूर्वश्‍लोकके अनुसार अर्जुन जिनको देख चुके हैं, उनके अतिरिक्त अर्जुनने बाह्लीक आदि प्रपितामह; धृष्‍टद्युम्‍न, शिखण्डी, सुरथ आदि साले; जयद्रथ आदि बहनोई तथा अन्य कई सम्बन्धियोंको दोनों सेनाओंमें स्थित देखा ।’

स कौन्तेयः कृपया परयाविष्‍टः’इन पदोंमें स कौन्तेयः’ कहनेका तात्पर्य है कि माता कुन्तीने जिनको युद्ध करनेके लिये सन्देश भेजा था और जिन्होंने शूरवीरतामें आकर मेरे साथ दो हाथ करनेवाले कौन हैं ?’‒ऐसे मुख्य-मुख्य योद्धाओंको देखनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णको दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेकी आज्ञा दी थी, वे ही कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त कायरतासे युक्त हो जाते हैं !

दोनों ही सेनाओंमें जन्मके और विद्याके सम्बन्धी-ही-सम्बन्धी देखनेसे अर्जुनके मनमें यह विचार आया कि युद्धमें चाहे इस पक्षके लोग मरें, चाहे उस पक्षके लोग मरें, नुकसान हमारा ही होगा, कुल तो हमारा ही नष्‍ट होगा, सम्बन्धी तो हमारे ही मारे जायँगे ! ऐसा विचार आनेसे अर्जुनकी युद्धकी इच्छा तो मिट गयी और भीतरमें कायरता आ गयी । इस कायरताको भगवान्‌ने आगे (२ । २-३ में) कश्मलम्’ तथा हृदयदौर्बल्यम्’ कहा है, और अर्जुनने (२ । ७ में) कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः’ कहकर इसको स्वीकार भी किया है ।

अर्जुन कायरतासे आविष्‍ट हुए हैं‒‘कृपयाविष्‍टः’ । इससे सिद्ध होता है कि यह कायरता पहले नहीं थी, प्रत्युत अभी आयी है । अतः यह आगन्तुक दोष है । आगन्तुक होनेसे यह ठहरेगी नहीं । परन्तु शूरवीरता अर्जुनमें स्वाभाविक है; अतः वह तो रहेगी ही ।

अत्यन्त कायरता क्या है ? बिना किसी कारण निन्दा, तिरस्कार, अपमान करनेवाले, दुःख देनेवाले, वैरभाव रखनेवाले, नाश करनेकी चेष्‍टा करनेवाले दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि आदिको अपने सामने युद्ध करनेके लिये खड़े देखकर भी उनको मारनेका विचार न होना, उनका नाश करनेका उद्योग न करना‒यह अत्यन्त कायरतारूप दोष है । यहाँ अर्जुनको कायरतारूप दोषने ऐसा घेर लिया है कि जो अर्जुन आदिका अनिष्‍ट चाहनेवाले और समय-समयपर अनिष्‍ट करनेका उद्योग करनेवाले हैं, उन अधर्मियों‒पापियोंपर भी अर्जुनको करुणा आ रही है (गीता‒पहले अध्यायका पैंतीसवाँ और छियालीसवाँ श्‍लोक) और वे क्षत्रियके कर्तव्यरूप अपने धर्मसे च्युत हो रहे हैं ।

विषीदन्‍निदमब्रवीत्’युद्धके परिणाममें कुटुम्बकी, कुलकी, देशकी क्या दशा होगी‒इसको लेकर अर्जुन बहुत दुःखी हो रहे हैं और उस अवस्थामें वे ये वचन बोलते हैं, जिसका वर्णन आगेके श्‍लोकोंमें किया गया है ।

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