।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०८०, सोमवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सूक्ष्म विषय‒अर्जुनद्वारा विपक्षियोंको देखनेकी इच्छा प्रकट करना ।

      योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।

      धार्तराष्‍ट्रस्य  दुर्बुद्धेर्युद्धे   प्रियचिकीर्षवः ॥ २३ ॥

दुर्बुद्धेः = दुष्‍टबुद्धि

अत्र = इस सेनामें

धार्तराष्‍ट्रस्य = दुर्योधनका

समागताः = आये हुए हैं,

युद्धे = युद्धमें

योत्स्यमानान् = युद्ध करनेको उतावले हुए (इन सबको)

प्रियचिकीर्षवः = प्रिय करनेकी इच्छावाले

अहम्‌ = मैं

ये = जो

अवेक्षे = देख लूँ ।

एते = ये राजालोग

 

व्याख्या‘धार्तराष्‍ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः’

१. धार्तराष्‍ट्र’ पदके दो अर्थ होते हैं‒(१) धृतराष्‍ट्रके पुत्र अथवा सम्बन्धी (२) अन्यायपूर्वक राष्‍ट्र (राज्य)-को धारण करनेवाले । यहाँ धृतराष्‍ट्रके पुत्र‒दुर्योधनके लिये ही धार्तराष्‍ट्रस्य पद आया है ।

यहाँ दुर्योधनको दुष्‍टबुद्धि कहकर अर्जुन यह बताना चाहते हैं कि इस दुर्योधनने हमारा नाश करनेके लिये आजतक कई तरहके षड़यन्त्र रचे हैं । हमें अपमानित करनेके लिये कई तरहके उद्योग किये हैं । नियमके अनुसार और न्यायपूर्वक हम आधे राज्यके अधिकारी हैं, पर उसको भी यह हड़पना चाहता है, देना नहीं चाहता । ऐसी तो इसकी दुष्‍टबुद्धि है; और यहाँ आये हुए राजालोग युद्धमें इसका प्रिय करना चाहते हैं ! वास्तवमें तो मित्रोंका यह कर्तव्य होता है कि वे ऐसा काम करें, ऐसी बात बतायें, जिससे अपने मित्रका लोक-परलोकमें हित हो । परन्तु ये राजालोग दुर्योधनकी दुष्‍टबुद्धिको शुद्ध न करके उलटे उसको बढ़ाना चाहते हैं और दुर्योधनसे युद्ध कराकर, युद्धमें उसकी सहायता करके उसका पतन ही करना चाहते हैं । तात्पर्य है कि दुर्योधनका हित किस बातमें है; उसको राज्य भी किस बातसे मिलेगा और उसका परलोक भी किस बातसे सुधरेगा‒इन बातोंका वे विचार ही नहीं कर रहे हैं । अगर ये राजालोग उसको यह सलाह देते कि भाई, कम-से-कम आधा राज्य तुम रखो और पाण्डवोंका आधा राज्य पाण्डवोंको दे दो तो इससे दुर्योधनका आधा राज्य भी रहता और उसका परलोक भी सुधरता ।

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः’इन युद्धके लिये उतावले होनेवालोंको जरा देख तो लूँ ! इन्होंने अधर्मका, अन्यायका पक्ष लिया है, इसलिये ये हमारे सामने टिक नहीं सकेंगे, नष्‍ट हो जायँगे ।

योत्स्यमानान्’ कहनेका तात्पर्य है कि इनके मनमें युद्धकी ज्यादा आ रही है; अतः देखूँ तो सही कि ये हैं कौन ?

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सम्बन्ध‒अर्जुनके ऐसा कहनेपर भगवान्‌ने क्या किया‒इसको संजय आगेके दो श्‍लोकोंमें कहते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒भगवान्‌द्वारा भीष्म-द्रोणके सामने रथको खड़ा करना और कुरुवंशियोंको देखनेके लिये अर्जुनको आज्ञा देना ।

सञ्‍जय उवाच

      एवमुक्तो   हृषीकेशो   गुडाकेशेन  भारत ।

      सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ २४ ॥

      भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।

उवाच  पार्थ   पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥ २५ ॥

संजय बोले‒

भारत = हे भरतवंशी राजन् !

महीक्षिताम् = राजाओंके सामने

गुडाकेशेन = निद्राविजयी अर्जुनके द्वारा

रथोत्तमम् = श्रेष्‍ठ रथको

एवम् = इस तरह

स्थापयित्वा = खड़ा करके

उक्तः = कहनेपर

इति = इस प्रकार

हृषीकेशः = अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने

उवाच = कहा कि

उभयोः = दोनों

पार्थ = ‘हे पार्थ !

सेनयोः = सेनाओंके

एतान् = इन

मध्ये = मध्यभागमें

समवेतान् = इकट्ठे हुए

भीष्मद्रोणप्रमुखतः = पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणके सामने

कुरून् = कुरुवंशियोंको

च = तथा

पश्य = देख’ ।

सर्वेषाम् = सम्पूर्ण

 

व्याख्या‘गुडाकेशेन’‘गुडाकेश’ शब्दके दो अर्थ होते हैं‒(१) गुडा’ नाम मुड़े हुएका है और केश’ नाम बालोंका है । जिसके सिरके बाल मुड़े हुए अर्थात् घुँघराले हैं, उसका नाम गुडाकेश’ है । (२) गुडाका’ नाम निद्राका है और ईश’ नाम स्वामीका है । जो निद्राका स्वामी है अर्थात् निद्रा ले चाहे न ले‒ऐसा जिसका निद्रापर अधिकार है, उसका नाम गुडाकेश’ है । अर्जुनके केश घुँघराले थे और उनका निद्रापर आधिपत्य था; अतः उनको गुडाकेश’ कहा गया है ।

एवमुक्तः’जो निद्रा-आलस्यके सुखका गुलाम नहीं होता और जो विषय-भोगोंका दास नहीं होता, केवल भगवान्‌का ही दास (भक्त) होता है, उस भक्तकी बात भगवान् सुनते हैं; केवल सुनते ही नहीं, उसकी आज्ञाका पालन भी करते हैं । इसलिये अपने सखा भक्त अर्जुनके द्वारा आज्ञा देनेपर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने दोनों सेनाओंके बीचमें अर्जुनका रथ खड़ा कर दिया ।

हृषीकेशः’इन्द्रियोंका नाम हृषीक’ है । जो इन्द्रियोंके ईश अर्थात् स्वामी हैं, उनको हृषीकेश कहते हैं । पहले इक्‍कीसवें श्‍लोकमें और यहाँ हृषीकेश’ कहनेका तात्पर्य है कि जो मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि सबके प्रेरक हैं, सबको आज्ञा देनेवाले हैं, वे ही अन्तर्यामी भगवान् यहाँ अर्जुनकी आज्ञाका पालन करनेवाले बन गये हैं ! यह उनकी अर्जुनपर कितनी अधिक कृपा है !

सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्’दोनों सेनाओंके बीचमें जहाँ खाली जगह थी, वहाँ भगवान्‌ने अर्जुनके श्रेष्‍ठ रथको खड़ा कर दिया ।

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्’उस रथको भी भगवान्‌ने विलक्षण चतुराईसे ऐसी जगह खड़ा किया, जहाँसे अर्जुनको कौटुम्बिक सम्बन्धवाले पितामह भीष्म, विद्याके सम्बन्धवाले आचार्य द्रोण एवं कौरव-सेनाके मुख्य-मुख्य राजालोग सामने दिखायी दे सकें ।

उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति’‘कुरु’ पदमें धृतराष्‍ट्रके पुत्र और पाण्डुके पुत्र‒ये दोनों आ जाते हैं; क्योंकि ये दोनों ही कुरुवंशी हैं । युद्धके लिये एकत्र हुए इन कुरुवंशियोंको देख‒ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि इन कुशवंशियोंको देखकर अर्जुनके भीतर यह भाव पैदा हो जाय कि हम सब एक ही तो हैं ! इस पक्षके हों, चाहे उस पक्षके हों; भले हों, चाहे बुरे हों; सदाचारी हों, चाहे दुराचारी हों; पर हैं सब अपने ही कुटुम्बी । इस कारण अर्जुनमें छिपा हुआ कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत् हो जाय और मोह जाग्रत् होनेसे अर्जुन जिज्ञासु बन जाय, जिससे अर्जुनको निमित्त बनाकर भावी कलियुगी जीवोंके कल्याणके लिये गीताका महान् उपदेश दिया जा सके‒इसी भावसे भगवान्‌ने यहाँ पश्यैतान् समवेतान् कुरून्’ कहा है । नहीं तो भगवान् पश्यैतान् धार्तराष्‍ट्रान् समानिति’ऐसा भी कह सकते थे; परन्तु ऐसा कहनेसे अर्जुनके भीतर युद्ध करनेका जोश आता; जिससे गीताके प्राकट्यका अवसर ही नहीं आता ! और अर्जुनके भीतरका प्रसुप्‍त कौटुम्बिक मोह भी दूर नहीं होता, जिसको दूर करना भगवान् अपनी जिम्मेवारी मानते हैं । जैसे कोई फोड़ा हो जाता है तो वैद्यलोग पहले उसको पकानेकी चेष्‍टा करते हैं और जब वह पक जाता है, तब उसको चीरा देकर साफ कर देते हैं; ऐसे ही भगवान् भक्तके भीतर छिपे हुए मोहको पहले जाग्रत् करके फिर उसको मिटाते हैं । यहाँ भी भगवान् अर्जुनके भीतर छिपे हुए मोहको कुरून् पश्य’ कहकर जाग्रत् कर रहे हैं, जिसको आगे उपदेश देकर नष्‍ट कर देंगे ।

अर्जुनने कहा था कि इनको मैं देख लूँ’‒निरीक्षे’ (१ । २२) अवेक्षे’ (१ । २३); अतः यहाँ भगवान्‌को पश्य’ (तू देख ले)‒ऐसा कहनेकी जरूरत ही नहीं थी । भगवान्‌को तो केवल रथ खड़ा कर देना चाहिये था । परन्तु भगवान्‌ने रथ खड़ा करके अर्जुनके मोहको जाग्रत् करनेके लिये ही कुरून् पश्य’ (इन कुरुवंशियोंको देख)‒ऐसा कहा है ।

कौटुम्बिक स्‍नेह और भगवत्प्रेम‒इन दोनोंमें बहुत अन्तर है । कुटुम्बमें ममतायुक्त स्‍नेह हो जाता है तो कुटुम्बके अवगुणोंकी तरफ खयाल जाता ही नहीं; किंतु ये मेरे हैं’ऐसा भाव रहता है । ऐसे ही भगवान्‌का भक्तमें विशेष स्‍नेह हो जाता है तो भक्तके अवगुणोंकी तरफ भगवान्‌का खयाल जाता ही नहीं; किन्तु यह मेरा ही है’ऐसा ही भाव रहता है । कौटुम्बिक स्‍नेहमें क्रिया तथा पदार्थ-(शरीरादि-) की और भगवत्प्रेममें भावकी मुख्यता रहती है । कौटुम्बिक स्‍नेहमें मूढ़ता-(मोह-) की और भगवत्प्रेममें आत्मीयताकी मुख्यता रहती है । कौटुम्बिक स्‍नेहमें अँधेरा और भगवत्प्रेममें प्रकाश रहता है । कौटुम्बिक स्‍नेहमें मनुष्य कर्तव्यच्युत हो जाता है और भगवत्प्रेममें तल्लीनताके कारण कर्तव्य-पालनमें विस्मृति तो हो सकती है, पर भक्त कभी कर्तव्यच्युत नहीं होता । कौटुम्बिक स्‍नेहमें कुटुम्बियोंकी और भगवत्प्रेममें भगवान्‌की प्रधानता होती है ।

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