।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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प्रधान विषय‒२०२७‒अर्जुनके द्वारा सेना-निरीक्षण ।

सम्बन्ध‒धृतराष्‍ट्रने पहले श्‍लोकमें अपने और पाण्डुके पुत्रोंके विषयमें प्रश्‍न किया था ? उसका उत्तर संजयने दूसरे श्‍लोकसे उन्‍नीसवें श्‍लोकतक दे दिया । अब संजय भगवद्‍गीताके प्राकट्‌यका प्रसंग आगेके श्‍लोकसे आरम्भ करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒२०-२१‒कौरवसेनाको देखकर अर्जुनका धनुष उठाना और दोनों सेनाओंके मध्यमें रथ खड़ा करनेके लिये भगवान्‌को आज्ञा देना ।

   अथ व्यवस्थितान्‍दृष्ट्वा धार्तराष्‍ट्रान्‌ कपिध्वजः ।

  प्रवृत्ते     शस्‍त्रसम्पाते     धनुरुद्यम्य    पाण्डवः ॥ २० ॥

   हृषीकेशं    तदा     वाक्यमिदमाह       महीपते ।

महीपते = हे महीपते धृतराष्‍ट्र !

कपिध्वजः = कपिध्वज

अथ = अब

पाण्डवः = पाण्डुपुत्र अर्जुनने

शस्‍त्रसम्पाते = शस्‍त्र चलनेकी

धनुः = (अपना) गाण्डीव धनुष

प्रवृत्ते = तैयारी हो ही रही थी कि

उद्यम्य = उठा लिया (और)

तदा = उस समय

हृषीकेशम् = अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णसे

धार्तराष्‍ट्रान् = अन्यायपूर्वक राज्यको धारण करनेवाले राजाओं और उनके साथियोंको

इदम् = यह

व्यवस्थितान् = व्यवस्थितरूपसे सामने खड़े हुए

वाक्यम् = वचन

दृष्‍ट्वा = देखकर

आह = बोले ।

व्याख्या‘अथ’इस पदका तात्पर्य है कि अब संजय भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादरूप भगवद्‌गीता’ का आरम्भ करते हैं । अठारहवें अध्यायके चौहत्तरवें श्‍लोकमें आये इति’ पदसे यह संवाद समाप्‍त होता है । ऐसे ही भगवद्‌गीताके उपदेशका आरम्भ उसके दूसरे अध्यायके ग्यारहवें श्‍लोकसे होता है और अठारहवें अध्यायके छाछठवें श्‍लोकमें यह उपदेश समाप्‍त होता है ।

प्रवृत्ते शस्‍त्रसम्पाते’यद्यपि पितामह भीष्मने युद्धारम्भकी घोषणाके लिये शंख नहीं बजाया था, प्रत्युत केवल दुर्योधनको प्रसन्‍न करनेके लिये ही शंख बजाया था, तथापि कौरव और पाण्डव-सेनाने उसको युद्धारम्भकी घोषणा ही मान लिया और अपने-अपने अस्‍त्र-शस्‍त्र हाथमें उठाकर तैयार हो गये । इस तरह सेनाको शस्‍त्र उठाये देखकर वीरतामें भरकर अर्जुनने भी अपना गाण्डीव धनुष हाथमें उठा लिया ।

व्यवस्थितान् धार्तराष्‍ट्रान् दृष्‍ट्वा’इन पदोंसे संजयका तात्पर्य है कि जब आपके पुत्र दुर्योधनने पाण्डवोंकी सेनाको देखा, तब वह भागा-भागा द्रोणाचार्यके पास गया । परन्तु जब अर्जुनने कौरवोंकी सेनाको देखा, तब उनका हाथ सीधे गाण्डीव धनुषपर ही गया‒‘धनुरुद्यम्य ।’ इससे मालूम होता है कि दुर्योधनके भीतर भय है और अर्जुनके भीतर निर्भयता है, उत्साह है, वीरता है ।

कपिध्वजः’अर्जुनके लिये कपिध्वज’ विशेषण देकर संजय धृतराष्‍ट्रको अर्जुनके रथकी ध्वजापर विराजमान हनुमान्‌जीका स्मरण कराते हैं । जब पाण्डव वनमें रहते थे, तब एक दिन अकस्मात् वायुने एक दिव्य सहस्रदल कमल लाकर द्रौपदीके सामने डाल दिया । उसे देखकर द्रौपदी बहुत प्रसन्‍न हो गयी और उसने भीमसेनसे कहा कि वीरवर ! आप ऐसे बहुत-से कमल ला दीजिये ।’ द्रौपदीकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये भीमसेन वहाँसे चल पड़े । जब वे कदलीवनमें पहुँचे, तब वहाँ उनकी हनुमान्‌जीसे भेंट हो गयी । उन दोनोंकी आपसमें कई बातें हुईं । अन्तमें हनुमान्‌जीने भीमसेनसे वरदान माँगनेके लिये आग्रह किया तो भीमसेनने कहा कि मेरेपर आपकी कृपा बनी रहे’ । इसपर हनुमानजीने कहा कि हे वायुपुत्र ! जिस समय तुम बाण और शक्तिके आघातसे व्याकुल शत्रुओंकी सेनामें घुसकर सिंहनाद करोगे, उस समय मैं अपनी गर्जनासे उस सिंहनादको और बढ़ा दूँगा । इसके सिवाय अर्जुनके रथकी ध्वजापर बैठकर मैं ऐसी भयंकर गर्जना किया करूँगा, जो शत्रुओंके प्राणोंको हरनेवाली होगी, जिससे तुमलोग अपने शत्रुओंको सुगमतासे मार सकोगे ।’ इस प्रकार जिनके रथकी ध्वजापर हनुमान्‌जी विराजमान हैं, उनकी विजय निश्‍चित है ।

१.तदाहं      बृंहयिष्यामि      स्वरवेण     रवं      तव ।

   विजयस्य ध्वजस्थश्‍च नादान्   मोक्ष्यामि दारुणान् ॥

   शत्रूणां    ये    प्राणहराः    सुखं    येन     हनिष्यथ ।

(महाभारत, वन १५१ । १७-१८)

पाण्डवः’धृतराष्‍ट्रने अपने प्रश्‍नमें पाण्डवाः’ पदका प्रयोग किया था । अतः धृतराष्‍ट्रको बार-बार पाण्डवोंकी याद दिलानेके लिये संजय (१ । १४ में और यहाँ) पाण्डवः’ शब्दका प्रयोग करते हैं ।

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते’पाण्डव-सेनाको देखकर दुर्योधन तो गुरु द्रोणाचार्यके पास जाकर चालाकीसे भरे हुए वचन बोलता है; परन्तु अर्जुन कौरव-सेनाको देखकर जो जगद्‌गुरु हैं, अन्तर्यामी हैं, मन-बुद्धि आदिके प्रेरक हैं‒ऐसे भगवान्‌ श्रीकृष्णसे शूरवीरता, उत्साह और अपने कर्तव्यसे भरे हुए (आगे कहे जानेवाले) वचन बोलते हैं ।

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सूक्ष्म विषय‒अर्जुनद्वारा विपक्षियोंको देखनेकी इच्छा प्रकट करना ।

अर्जुन उवाच

       सेनयोरुभयोर्मध्ये   रथं  स्थापय   मेऽच्युत ॥ २१ ॥

       यावदेतान्‍निरीक्षेऽहं योद्ध‍ुकामानवस्थितान् ।

    कैर्मया    सह    योद्धव्यमस्मिन्‍रणसमुद्यमे ॥ २२ ॥

अर्जुन बोले‒

अच्युत = हे अच्युत !

एतान् = इन

उभयोः = दोनों

योद्ध‍ुकामान् = युद्धकी इच्छावालोंको

सेनयोः = सेनाओंके

निरीक्षे = देख न लूँ कि

मध्ये = मध्यमें

अस्मिन् = इस

मे = मेरे

रणसमुद्यमे = युद्धरूप उद्योगमें

रथम् = रथको (आप तबतक)

मया = मुझे

स्थापय = खड़ा कीजिये,

कैः = किन-किनके

यावत् = जबतक

सह = साथ

अहम्‌ = मैं (युद्धक्षेत्रमें)

योद्धव्यम् =युद्ध करना योग्य है ।

अवस्थितान् = खड़े हुए

 

व्याख्या‘अच्युत सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय’दोनों सेनाएँ जहाँ युद्ध करनेके लिये एक-दूसरेके सामने खड़ी थीं, वहाँ उन दोनों सेनाओंमें इतनी दूरी थी कि एक सेना दूसरी सेनापर बाण आदि मार सके । उन दोनों सेनाओंका मध्यभाग दो तरफसे मध्य था‒(१) सेनाएँ जितनी चौड़ी खड़ी थीं, उस चौड़ाईका मध्यभाग और (२) दोनों सेनाओंका मध्यभाग, जहाँसे कौरव-सेना जितनी दूरीपर खड़ी थी, उतनी ही दूरीपर पाण्डव-सेना खड़ी थी । ऐसे मध्यभागमें रथ खड़ा करनेके लिये अर्जुन भगवान्‌से कहते हैं, जिससे दोनों सेनाओंको आसानीसे देखा जा सके ।

सेनयोरुभयोर्मध्ये’ पद गीतामें तीन बार आया है‒यहाँ (१ । २१ में), इसी अध्यायके चौबीसवें श्‍लोकमें और दूसरे अध्यायके दसवें श्‍लोकमें । तीन बार आनेका तात्पर्य है कि पहले अर्जुन शूरवीरताके साथ अपने रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा करनेकी आज्ञा देते हैं (पहले अध्यायका इक्‍कीसवाँ श्‍लोक), फिर भगवान् दोनों सेनाओंके बीचमें रथको खड़ा करके कुरुवंशियोंको देखनेके लिये कहते हैं (पहले अध्यायका चौबीसवाँ श्‍लोक) और अन्तमें दोनों सेनाओंके बीचमें ही विषादमग्‍न अर्जुनको गीताका उपदेश देते हैं (दूसरे अध्यायका दसवाँ श्‍लोक) । इस प्रकार पहले अर्जुनमें शूरवीरता थी, बीचमें कुटुम्बियोंको देखनेसे मोहके कारण उनकी युद्धसे उपरति हो गयी और अन्तमें उनको भगवान्‌से गीताका महान् उपदेश प्राप्‍त हुआ, जिससे उनका मोह दूर हो गया । इससे यह भाव निकलता है कि मनुष्य जहाँ-कहीं और जिस-किसी परिस्थितिमें स्थित है, वहीं रहकर वह प्राप्‍त परिस्थितिका सदुपयोग करके निष्काम हो सकता है और वहीं उसको परमात्माकी प्राप्‍ति हो सकती है । कारण कि परमात्मा सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें सदा एकरूपसे रहते हैं ।

यावदेतान्‍निरीक्षेऽहं.......रणसमुद्यमे’दोनों सेनाओंके बीचमें रथ कबतक खड़ा करें ? इसपर अर्जुन कहते हैं कि युद्धकी इच्छाको लेकर कौरव-सेनामें आये हुए सेनासहित जितने भी राजालोग खड़े हैं, उन सबको जबतक मैं देख न लूँ, तबतक आप रथको वहीं खड़ा रखिये । इस युद्धके उद्योगमें मुझे किन-किनके साथ युद्ध करना है ? उनमें कौन मेरे समान बलवाले हैं ? कौन मेरेसे कम बलवाले हैं ? और कौन मेरेसे अधिक बलवाले हैं ? उन सबको मैं जरा देख लूँ ।

यहाँ योद्ध‍ुकामान्’ पदसे अर्जुन कह रहे हैं कि हमने तो सन्धिकी बात ही सोची थी, पर उन्होंने सन्धिकी बात स्वीकार नहीं की; क्योंकि उनके मनमें युद्ध करनेकी ज्यादा इच्छा है । अतः उनको मैं देखूँ कि कितने बलको लेकर वे युद्ध करनेकी इच्छा रखते हैं ।

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