।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
       श्रावण अमावस्या, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें सृष्टि-रचना



सृष्टिश्चतुर्विधा प्रोक्ता त्वादिसंकल्पजा प्रभोः ।

ब्रह्मजा  चान्नजा   तुर्या   क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोगजा ॥

गीतामें सृष्टि-रचनाका वर्णन चार प्रकारसे हुआ है, जो इस तरह है‒

(१) महासर्ग‒ब्रह्माजीकी और सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति महासर्गमे होती है । यह महासर्ग भगवान्‌के संकल्पसे होता है । भगवान्‌का संकल्प क्यों होता है ? महाप्रलयमें सम्पूर्ण जीव अपने-अपने कर्मोंके संस्कारोंके साथ कारणशरीरसहित प्रकृतिमें लीन होते हैं और प्रकृति उन सम्पूर्ण प्राणियोंसहित भगवान्‌में लीन होती है । प्रकृतिमें लीन हुए उन प्राणियोंके कर्म जब परिपक्‍व होकर फल देनेके लिये उन्मुख हो जाते हैं, तब भगवान्‌में बहु स्यां प्रजायेय(तैत्तिरीय २ । ६) मैं अकेला ही बहुत हो जाऊँ‒ऐसा संकल्प होता है । ऐसा संकल्प होते ही भगवान्‌ अपनी प्रकृतिको स्वीकार करके ब्रह्माजीकी,[*] सम्पूर्ण जीवोंके शरीरोंकी और सम्पूर्ण लोकोंकी रचना करते है । परन्तु रचना-रूपसे परिणति तो प्रकृतिमें ही होती है अर्थात् सम्पूर्ण जीवोंके शरीरोंका निर्माण तो प्रकृतिसे ही होता है । इसलिये भगवान्‌ने गीतामें दो बातें कही हैं कि मैं महासर्गमें प्राणियोंके शरीरोंका निर्माण करता हूँ तो प्रकृतिको स्वीकार करके ही करता हूँ (९ । ७-८) और प्रकृति प्राणियोंके शरीरोंका निर्माण करती है तो मेरी अध्यक्षतासे अर्थात् मेरेसे सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही करती है (९ । १०) ।

महासर्गका वर्णन गीतामें दूसरी जगह इस प्रकार आया है‒

चौथे अध्यायके पहले श्‍लोकमें यह अविनाशी योग पहले महासर्गके आदिमें मैंने सूर्यसे कहा था और तीसरे श्‍लोकमें वही यह पुरातन (महासर्गके आदिमें कहा हुआ) योग मैंने आज तुमसे कहा है ऐसा कहकर भगवान्‌ने महासर्गका वर्णन किया है ।

चौथे अध्यायके ही तेरहवें श्‍लोकमें भगवान्‌के द्वारा गुणों और कर्मोंके अनुसार चारों वणोंकी रचनाकी बात आयी है, जो कि महासर्गका समय है ।

आठवें अध्यायके तीसरे श्‍लोकमें विसर्गः कर्मसंज्ञितः’ पदोंमें भगवान्‌के द्वारा सृष्टि-रचनाके लिये संकल्प करनेको विसर्ग’ कहा गया है, जो कि महासर्गका समय है ।

दसवें अध्यायके छठे श्‍लोकमें चार सनकादि, सात महर्षि और चौदह मनु मेरे मनसे उत्पन्न होते हैं, जिनकी संसारमें यह प्रजा है‒ऐसा कहकर महासर्गका वर्णन किया गया है ।

चौदहवें अध्यायके तीसरे-चौथे श्‍लोकोंमें प्रकृतिको बीज धारण करनेका स्थान और अपनेको बीज प्रदान करनेवाला पिता बताकर भगवान्‌ने महासर्गका वर्णन किया है ।

सत्रहवें अध्यायके तेईसवें श्‍लोकमें जिस परमात्माके ॐ, तत् और सत्‒ये तीन नाम है, उसी परमात्माने सृष्टिके आदिमें वेद, ब्राह्मण और यज्ञोंकी रचना की है‒ऐसा कहकर महासर्गका वर्णन किया गया है ।

अठारहवें अध्यायके इकतालीसवें श्‍लोकमें स्वभावसे उत्पन्न हुए गुणोंके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके कर्मोंका विभाग किया गया है‒ऐसा कहकर भगवान्‌ने महासर्गका वर्णन किया है ।



[*] कभी तो भगवान्‌ स्वयं ब्रह्मारूपसे प्रकट होते हैं और कभी जीव अपने पुण्यकर्मोंके कारण ब्रह्मा बन जाता है ।