(२) सर्ग‒ब्रह्माजीके सोनेपर प्रलय होता है और जागनेपर सर्ग होता है । सर्गके समय ब्रह्माजीके
सूक्ष्मशरीरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है । तात्पर्य है कि प्रलयके समय
सम्पूर्ण प्राणी अपने-अपने सूक्ष्म और कारण-शरीरोंके सहित ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरमें
लीन हो जाते हैं और सर्गके समय पुनः उन सूक्ष्म और कारण-शरीरोंके सहित ब्रह्माजीके
सूक्ष्मशरीरसे प्रकट हो जाते हैं (८ । १ ८- १९) । तीसरे अध्यायके दसवें श्लोकमें ‘प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिमें यज्ञ (कर्तव्य-कर्म)-के सहित प्रजाकी रचना
की’‒ऐसा कहकर सर्गका
वर्णन किया गया है । [ महासर्गमें तो भगवान् जीवोंका कारण-शरीरके साथ विशेष सम्बन्ध
करा देते हैं‒यही भगवान्के द्वारा प्राणियोंकी रचना करना है और सर्गमें ब्रह्माजी
जीवोंका सूक्ष्मशरीरके साथ विशेष सम्बन्ध करा देते हैं‒यही ब्रह्माजीके द्वारा प्राणियोंकी
रचना करना है । ] (३) सृष्टिचक्र‒पहले तो ब्रह्माजीकी
मानसिक सृष्टि होती है । इसके बाद ब्रह्माजीसे स्थूलरूपमें स्त्री और पुरुषका शरीर
उत्पन्न होता है । फिर स्त्री-पुरुषके संयोगसे यह सृष्टि चल पड़ती है, इसका नाम है‒सृष्टिचक्र । इसी बातको गीतामें
कहा गया है कि अन्नसे अर्थात् स्त्री-पुरुषके रज-वीर्यसे सब प्राणी पैदा होते है;
अन्न वर्षासे पैदा होता है; वर्षा कर्तव्य-कर्मरूप
यज्ञसे होती है; उस कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञकी विधिका विधान वेद
और वेदानुकूल शास्त्रोंसे होता है; वेद परमात्मासे प्रकट होते
हैं; अतः परमात्मा ही सर्वगत हैं, अर्थात् सबके मूलमें परमात्मा ही विद्यमान हैं (३
। १४- १५) । सृष्टि चाहे भगवान्से हो, चाहे ब्रह्माजीसे हो, चाहे
अन्न (रज-वीर्य)-से हो अर्थात् चाहे महासर्ग हो, चाहे सर्ग हो,
चाहे सृष्टिचक्र हो, सबके मूलमें एक परमात्मा ही
रहते है । अतः इन तीनों सृष्टियोंका तात्पर्य सबके मूल परमात्माके सम्मुख होनेमें ही
है । (४) क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-संयोग‒जीवोंका अपने-अपने शरीरोंके साथ जो तादात्म्य है, उसको ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका
संयोग’ कहते हैं । इसीको ‘प्रकृति-पुरुषका संयोग’,
‘जड़-चेतनका संयोग’ और
‘अपरा-परा प्रकृतिका संयोग’ भी कहते हैं । जीवोंका स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरोंके
साथ जो ‘राग’ है,
वही संयोग है । इस संयोगके कारण ही जीवोंकी उत्पत्ति होती है,
जन्म-मरण होता है (१३ । २१) । तात्पर्य है कि इस संयोग (राग)-से ही जीवोंका
महासर्गमें कारणशरीरके साथ, सर्गमें सूक्ष्म-शरीरके साथ और सृष्टिचक्रमें
माता-पिताके रजवीर्यके साथ सम्बन्ध हो जाता है । जीवोंका शरीरके साथ जो तादात्म्य है, राग है, सम्बन्ध है,
उसका वर्णन गीताके सातवें अध्यायके छठे श्लोकमें और तेरहवें अध्यायके
इक्कीसवें तथा छब्बीसवें श्लोकमें किया गया है ।
उपर्युक्त महासर्ग, सर्ग, सृष्टिचक्र
और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-संयोग‒इन चारोंका तात्पर्य यह है कि चाहे
महासर्ग हो, चाहे सर्ग हो, चाहे सृष्टिचक्र
हो और चाहे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-संयोग हो, इन सबमें परमात्माका
जीवोंके साथ और जीवोंका परमात्माके साथ अटूट सम्बन्ध रहता है । केवल शरीरकी परवशताके
कारण जीव बार-बार जन्मता-मरता रहता है । यह परवशता भी इसकी खुदकी बनायी हुई है । अगर
इस परवशताको छोड़कर जीव परमात्माके सम्मुख हो जाय तो हरेक परिस्थितिमें परमात्माको प्राप्त
कर सकता है । |