।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें विश्वरूप-दर्शन



विश्वरूपं    प्रभोर्द्रष्टुं     कृपापात्रैर्हि     शक्यते ।

यज्ञादिसाधनैः कोऽपि द्रष्टुं शक्तो न तत् क्वचित् ॥

भगवान्‌ने अर्जुनको अपना जो विश्वरूप (विराट्‌रूप) दिखाया है, वह किसी साधनका फल नहीं है । भगवान्‌ने स्वयं कहा है कि इस प्रकार विश्वरूपवाला मैं वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान, दान, उग्र तपस्या, तीर्थ, व्रत आदि क्रियाओंसे नहीं देखा जा सकता’ (११ । ४८) । इस विश्वरूपका दर्शन तो भगवान्‌ ही कृपा करके अपनी सामर्थ्यसे दिव्य दृष्टि देकर दिखा सकते हैं‒मया प्रसन्नेन......आत्मयोगात्’ (११ । ४७) । भगवान्‌ने अपने चतुर्भुज विष्णुरूपके लिये तो अनन्यभक्तिको साधन बताया है (११ ।५४), पर विश्वरूपके लिये कोई साधन नहीं बताया, केवल अपनी कृपाको ही साधन बताया है । अर्जुनने भी नम्रतापूर्वक भगवान्‌से प्रार्थना की थी कि हे भगवन् ! यदि आपका विश्वरूप मेरे द्वारा देखा जा सकता है‒ऐसा आप मानते हैं तो आप अपने उस रूपको मुझे दिखा दीजिये’ (११ । ४) । इस तरह अर्जुनकी उत्कण्ठा होनेसे भगवान्‌ने कृपा करके अर्जुनको अपना विश्वरूप दिखा दिया; क्योंकि भगवान्‌ भक्तवाञ्छाकल्पतरु हैं ।

भगवान्‌ने पहले कृपा करके कौसल्या अम्बा, यशोदा मैया, उत्तंक, भीष्मजी आदिको जो विश्वरूप दिखाया था, वह इस प्रकार अत्यन्त भयानक नहीं था कारण कि इसको देखकर शूरवीर अर्जुन भी भयभीत हो गये और भगवान्‌ने भी इस बातको स्वीकार किया कि ‘हे अर्जुन ! मैंने तुमको जैसा यह विश्वरूप दिखाया है, वैसा पहले किसीने भी नहीं देखा है’ (११ । ४७) । भगवान्‌ने अर्जुनको जो विश्वरूप दिखाया है, वह यह दीखनेवाला संसार नहीं है । यह संसार तो उस विश्वरूपका आभासमात्र, झलकमात्र है । कारण कि यह संसार नाशवान् और जड़ है, दिव्य नहीं है; परन्तु वह विश्वरूप दिव्य है, अविनाशी है, अनन्त है । भगवान्‌ तो अर्जुनको अपना विश्वरूप दिखाते ही चले जा रहे थे, पर अर्जुन उसको देखते-देखते भयभीत हो गये और प्रार्थना करने लगे कि हे भगवन् ! पहले कभी न देखे हुए आपके विश्वरूपको देखकर तो मैं हर्षित हो रहा हूँ, पर आपके अत्यन्त उग्र और भयंकर रूपको देखकर मेरा मन व्यथित हो रहा है अर्थात् मैं भयभीत हो रहा हूँ; अतः आप चतुर्भुजरूपमें हो जाइये’ (११ । ४५-४६) । अगर अर्जुन भयभीत होकर भगवान्‌से चतुर्भुजरूपको दिखानेकी प्रार्थना न करते तो भगवान्‌ न जाने और क्या-क्या दिखाते, कैसे-कैसे रूप दिखाते, कितने-कितने रूपोंमें अर्जुनके सामने प्रकट होते ! इसका कोई पारावार नहीं होता ।

संजयने भी उस विश्वरूपके प्रभावसे प्रभावित होकर कहा है कि हे राजन् ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके उस अत्यन्त अद्‌भुत विश्वरूपको याद करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ और मेरेको महान् आश्चर्य भी हो रहा है (१८ । ७७) ।

भगवान्‌का विश्वरूप ज्ञानदृष्टिका विषय नहीं है, प्रत्युत दिव्यदृष्टिका विषय है । तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष भी साधकको ज्ञानदृष्टि देकर इस संसारको वासुदेवः सर्वम्‌’ के रूपसे दिखा सकते हैं, बोध करा सकते हैं, पर भगवान्‌के विश्वरूपको नहीं दिखा सकते अर्थात् हरेक सन्त-महात्मा उस विश्वरूपको देखने-दिखानेमें समर्थ नहीं है उस विश्वरूपको तो भगवान्‌ और भगवान्‌से अधिकार प्राप्त किये हुए भगवत्कृपापात्र कारक पुरुष ही दिव्यदृष्टि देकर दिखा सकते हैं भगवान्‌ने अर्जुनको ज्ञानदृष्टि देकर इस संसारको ही विश्वरूपसे दिखा दिया होयह बात नहीं है; किन्तु भगवान्‌ने अर्जुनको दिव्यदृष्टि देकर नेत्रोंसे साक्षात्‌ दिखाया है अर्जुनने विश्वरूप दिखानेके लिये भगवान्‌से प्रार्थना की तो भगवान्‌ने अपना विश्वरूप देखनेके लिये अर्जुनको आज्ञा दी (११ । ५-७) । परन्तु जब अर्जुनको कुछ भी नहीं दीखा, तब भगवान्‌ने कहा कि ‘भैया ! तुम अपने इन नेत्रों (चर्मचक्षुओं)-से मेरे विश्वरूपको नहीं देख सकते । अतः मैं तुम्हें दिव्यदृष्टि देता हूँ, जिससे तुम मेरे उस रूपको देख लो (११ । ८) दिव्यदृष्टि प्राप्त होते ही अर्जुनको विश्वरूपके दर्शन होने लगे । अर्जुनने कहा भी कि ‘हे भगवन् ! मैं आपके शरीरमें सम्पूर्ण देवताओं आदिको देख रहा हूँ‘पश्यामि देवांस्तव देव देहे.....’ (११ । १५)[*] । संजयने भी कहा कि अर्जुनने देवोंके देव भगवान्‌के शरीरमें विश्वरूपको देखाअपश्यद्‌देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा’ (११ । १३) । भगवान्‌ने भी अपने शरीरमें विश्वरूपको देखनेकी आज्ञा दी थी (११ । ७)

तात्पर्य यह है कि ऐसा ऐश्वर्यमय दिव्य विश्वरूप न तो किसी साधनके बलसे देखा जा सकता है, न मनुष्य अपनी सामर्थ्यसे देख सकता है और न तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष ही ज्ञानदृष्टि देकर उसे दिखा सकते हैं । उसके दर्शनमें तो केवल भगवत्कृपा ही कारण है ।



[*] अर्जुनने और जगह भी विश्वरूपको नेत्रोंसे देखनेकी ही बात कही है; जैसे‒‘पश्यामि(११ । १६-१७, १९); ‘दृष्ट्वा’ (११ । २०, २३-२४, ४५); ‘दृष्ट्वैव (११ ।२५); ‘संदृश्यन्ते’ (११ ।२७) आदि ।