विभूति-वर्णनका उद्देश्य मनुष्योंका प्रायः यह स्वभाव होता है कि वे किसी वस्तु, व्यक्ति,
परिस्थिति, घटना आदिकी विशेषता, महत्ता, प्रभाव, सुन्दरता आदिको देखकर उसीमें आकृष्ट हो जाते हैं । वास्तवमें संसारमें जो कुछ विशेषता आदि दिखायी देती है, वह
संसारकी है ही नहीं । कारण कि जो संसार एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, ऐसे
क्षणभङ्गुर संसारकी विशेषता हो ही कैसे सकती है । उसमें जो
कुछ विशेषता दीखती है, वह मूलमें संसारके आश्रय, आधार
और प्रकाशक भगवान्की ही है । परन्तु भगवान्की तरफ दृष्टि न रहनेसे मनुष्य संसारमें
ऊपरका भभका देखकर उस तरफ खिंच जाता है । केवल ऊपरके भभकेको देखकर आकृष्ट हो जाना और
उसके मूल कारणको न देखना पशुओंकी वृत्ति है, मनुष्योंकी नहीं । मनुष्य विवेक-प्रधान प्राणी है;
अतः उसको तात्कालिक दीखनेवाली संसारकी विशेषताको महत्त्व देकर
उसमें आकृष्ट नहीं होना चाहिये । अगर मनुष्य बिना विचार किये ही उसमें आकृष्ट हो जाता
है तो उसमें विवेक-विचारकी प्रधानता ही कहाँ रही ? इसलिये मनुष्यको संसारकी मानी हुई महत्तासे अपना मन हटाकर भगवान्की
वास्तविक महत्तामें लगाना चाहिये । मनुष्यमात्रका मन अपनी
ओर आकृष्ट करनेके लिये ही भगवान्ने अपनी विभूतियोंका वर्णन किया है । गीतामें भगवान्ने अपनी जिन मुख्य-मुख्य विभूतियोंका वर्णन किया
है,
उन सबमें जो कुछ भी विशेषता देखनेमें आती है,
वह सब भगवान्को लेकर ही है । अतः संसारमें
जहाँ-कहीं किञ्चिन्मात्र भी विशेषता दिखायी दे, उस
विशेषताको लेकर साधकको स्वतः भगवान्का चिन्तन करना चाहिये ।
संसारकी विशेषताको माननेसे जहाँ संसारका चिन्तन होता है, वहाँ
उस विशेषताको भगवान्की ही माननेसे वह चिन्तन भगवान्के चिन्तनमें परिणत हो जायगा अर्थात्
वहाँ भगवान्का चिन्तन होने लगेगा । साधकको चाहिये कि गीतामें जिन विभूतियोंका वर्णन हुआ है,
वे विभूतियाँ किन कारणोंसे मुख्य हैं ?
इनमें क्या-क्या विलक्षणताएँ हैं ?
इनके विषयमें किस-किस ग्रन्थमें क्या-क्या लिखा है ?
इस तरफ वृत्ति न लगाकर ऐसा विचार करे कि इनका मूल क्या है ?
ये कहाँसे प्रकट हुई हैं ? इस तरह अपनी वृत्तियोंका प्रवाह इन विभूतियोंकी तरफ न होकर इनके
मूल भगवान्की तरफ ही होना चाहिये । मनुष्यकी वृत्तियोंका
प्रवाह अपनी तरफ करनेके लिये ही भगवान्ने विभूतियोंका वर्णन किया है (१० ।
४१);
क्योंकि अर्जुनकी यही जिज्ञासा थी (१० । १७) । अतः ये विभूतियाँ
भगवान्का चिन्तन करनेके लिये ही हैं । इन विभूतियोंमें विलक्षणता दीखे अथवा न दीखे,
इनको जानें अथवा न जानें, फिर भी इनमें भगवान्का चिन्तन होना चाहिये । तात्पर्य यह है
कि भगवान्का उद्देश्य विभूतियोंका वर्णन करनेका नहीं है, प्रत्युत
अपना चिन्तन करानेका है । चिन्तन करानेका उद्देश्य है‒साधक मेरेको तत्त्वसे जान जाय
और उसकी मेरेमें दृढ़ भक्ति हो जाय‒ एतां
विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः । सोऽविकम्पेन
योगेन युज्यते नात्र संशयः
॥ (१० । ७) विभूतियोंकी दिव्यता
दसवें अध्यायमें अर्जुनने सोलहवें श्लोकमें और भगवान्ने उन्नीसवें
तथा चालीसवें श्लोकमें अपनी विभूतियोंको ‘दिव्य’ कहा है । इसका कारण यह है कि भगवान् दिव्यातिदिव्य हैं;
अतः जितनी भी विभूतियाँ हैं, वे सभी तत्त्वसे दिव्य हैं । परन्तु साधकके सामने उन विभूतियोंकी दिव्यता तभी प्रकट होती है, जब
वह भोगबुद्धिका सर्वथा त्याग करके उन विभूतियोंमें केवल भगवान्का ही चिन्तन करता है
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