।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें विभूति-वर्णन



विभूति-वर्णनका उद्देश्य

मनुष्योंका प्रायः यह स्वभाव होता है कि वे किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदिकी विशेषता, महत्ता, प्रभाव, सुन्दरता आदिको देखकर उसीमें आकृष्ट हो जाते हैं । वास्तवमें संसारमें जो कुछ विशेषता आदि दिखायी देती है, वह संसारकी है ही नहीं । कारण कि जो संसार एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, ऐसे क्षणभङ्गुर संसारकी विशेषता हो ही कैसे सकती है । उसमें जो कुछ विशेषता दीखती है, वह मूलमें संसारके आश्रय, आधार और प्रकाशक भगवान्‌की ही है । परन्तु भगवान्‌की तरफ दृष्टि न रहनेसे मनुष्य संसारमें ऊपरका भभका देखकर उस तरफ खिंच जाता है । केवल ऊपरके भभकेको देखकर आकृष्ट हो जाना और उसके मूल कारणको न देखना पशुओंकी वृत्ति है, मनुष्योंकी नहीं । मनुष्य विवेक-प्रधान प्राणी है; अतः उसको तात्कालिक दीखनेवाली संसारकी विशेषताको महत्त्व देकर उसमें आकृष्ट नहीं होना चाहिये । अगर मनुष्य बिना विचार किये ही उसमें आकृष्ट हो जाता है तो उसमें विवेक-विचारकी प्रधानता ही कहाँ रही ? इसलिये मनुष्यको संसारकी मानी हुई महत्तासे अपना मन हटाकर भगवान्‌की वास्तविक महत्तामें लगाना चाहिये । मनुष्यमात्रका मन अपनी ओर आकृष्ट करनेके लिये ही भगवान्‌ने अपनी विभूतियोंका वर्णन किया है ।

गीतामें भगवान्‌ने अपनी जिन मुख्य-मुख्य विभूतियोंका वर्णन किया है, उन सबमें जो कुछ भी विशेषता देखनेमें आती है, वह सब भगवान्‌को लेकर ही है । अतः संसारमें जहाँ-कहीं किञ्चिन्मात्र भी विशेषता दिखायी दे, उस विशेषताको लेकर साधकको स्वतः भगवान्‌का चिन्तन करना चाहिये । संसारकी विशेषताको माननेसे जहाँ संसारका चिन्तन होता है, वहाँ उस विशेषताको भगवान्‌की ही माननेसे वह चिन्तन भगवान्‌के चिन्तनमें परिणत हो जायगा अर्थात् वहाँ भगवान्‌का चिन्तन होने लगेगा ।

साधकको चाहिये कि गीतामें जिन विभूतियोंका वर्णन हुआ है, वे विभूतियाँ किन कारणोंसे मुख्य हैं ? इनमें क्या-क्या विलक्षणताएँ हैं ? इनके विषयमें किस-किस ग्रन्थमें क्या-क्या लिखा है ? इस तरफ वृत्ति न लगाकर ऐसा विचार करे कि इनका मूल क्या है ? ये कहाँसे प्रकट हुई हैं ? इस तरह अपनी वृत्तियोंका प्रवाह इन विभूतियोंकी तरफ न होकर इनके मूल भगवान्‌की तरफ ही होना चाहिये । मनुष्यकी वृत्तियोंका प्रवाह अपनी तरफ करनेके लिये ही भगवान्‌ने विभूतियोंका वर्णन किया है (१० । ४१); क्योंकि अर्जुनकी यही जिज्ञासा थी (१० । १७) । अतः ये विभूतियाँ भगवान्‌का चिन्तन करनेके लिये ही हैं । इन विभूतियोंमें विलक्षणता दीखे अथवा न दीखे, इनको जानें अथवा न जानें, फिर भी इनमें भगवान्‌का चिन्तन होना चाहिये । तात्पर्य यह है कि भगवान्‌का उद्देश्य विभूतियोंका वर्णन करनेका नहीं है, प्रत्युत अपना चिन्तन करानेका है । चिन्तन करानेका उद्देश्य है‒साधक मेरेको तत्त्वसे जान जाय और उसकी मेरेमें दृढ़ भक्ति हो जाय‒

एतां विभूतिं योगं च  मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।

सोऽविकम्पेन  योगेन युज्यते  नात्र  संशयः ॥

(१० । ७)

विभूतियोंकी दिव्यता

दसवें अध्यायमें अर्जुनने सोलहवें श्‍लोकमें और भगवान्‌ने उन्नीसवें तथा चालीसवें श्‍लोकमें अपनी विभूतियोंको दिव्यकहा है । इसका कारण यह है कि भगवान्‌ दिव्यातिदिव्य हैं; अतः जितनी भी विभूतियाँ हैं, वे सभी तत्त्वसे दिव्य हैं । परन्तु साधकके सामने उन विभूतियोंकी दिव्यता तभी प्रकट होती है, जब वह भोगबुद्धिका सर्वथा त्याग करके उन विभूतियोंमें केवल भगवान्‌का ही चिन्तन करता है ।