।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतामें विभूति-वर्णन



प्रोक्ताः   कारणरूपाश्च   सप्तमे तु  विभूतयः ।

कार्यकारणरूपाश्च   कृष्णेन   नवमे  स्वयम् ॥

दशमे व्यक्तिभावाभ्यां सारमुख्यादिभिश्च वै ।

स्वीयाः  प्रभावरूपेण  प्रोक्ताः पञ्चदशे तथा ॥

भगवान्‌ने साधकके अन्यभाव (परमात्माके सिवाय अन्य कुछ है‒इस भाव)-को हटानेके लिये गीताके सातवें, नवें, दसवें और पंद्रहवें‒इन चार अध्यायोंमें अपनी विभूतियोंका वर्णन किया है ।

सातवें अध्यायके सातवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने ‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति’ ‘मेरेसे बढ़कर इस जगत्‌का दूसरा कोई किञ्चिन्मात्र भी कारण नहीं है’ऐसा कहा और उसके बाद आठवें श्‍लोकसे बारहवें श्‍लोकतक कारणरूपसे अपनी सत्रह विभूतियोंका वर्णन किया । कारणरूपसे विभूतियाँ बतानेका तात्पर्य यह है कि कार्यमें तो गुणोंकी भिन्नता होती है, पर कारणमें गुणोंकी भिन्नता नहीं होती । जैसे, आकाशका कार्य शब्द है और शब्द वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक रूपसे कई तरहका होता है; परन्तु कारणरूपसे आकाश एक ही रहता है । ऐसे ही परमात्माका कार्य संसार है और परमात्मा कारण हैं । गुणोंकी भिन्नतासे संसार कई तरहका होता है; परन्तु उन सबमें कारणरूपसे परमात्मा एक ही रहते हैं । जो मनुष्य कार्य (संसार)-में आसक्त हो जाते हैं, वे तो बँध जाते हैं, पर जो मनुष्य कारणरूपसे एक परमात्माको ही देखते हैं, वे बँधते नहीं, प्रत्युत कार्यसे सर्वथा असंग होकर वासुदेवः सर्वम्’ ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’‒इसका अनुभव कर लेते हैं ।

नवें अध्यायके सोलहवें श्‍लोकसे उन्नीसवें श्‍लोकतक भगवान्‌ने कार्य-कारणरूपसे अपनी सैंतीस विभूतियोंका वर्णन किया । तात्पर्य है कि कार्य-कारण, असत्-सत् अनित्य-नित्य, असार-सार आदि जो कुछ भी है, वह सब परमात्मा ही हैं । परमात्माके सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं ।

दसवें अध्यायके चौथे-पाँचवें श्‍लोकोंमें भगवान्‌ने प्राणियोंके भावोंके रूपमें अपनी बीस विभूतियोंका और छठे श्‍लोकमें व्यक्तियोंके रूपमें अपनी पचीस विभूतियोंका वर्णन किया है । फिर अर्जुनके मैं आपका कहाँ-कहाँ चिन्तन करूँ ?’‒इस प्रश्रके उत्तरमें भगवान्‌ने बीसवें श्‍लोकसे अड़तीसवें श्‍लोकतक मुख्यरूपसे तथा अधिपतिरूपसे अपनी इक्यासी विभूतियोंका वर्णन किया । फिर उन्तालीसवें श्‍लोकमें साररूपसे अपनी एक विभूतिका वर्णन किया । तात्पर्य यह है कि संसारमें भाव, व्यक्ति, मुख्य अधिपति और साररूपसे जो कुछ भी है, वह सब भगवान्‌ ही हैं ।

पन्द्रहवें अध्यायके बारहवें श्‍लोकसे पन्द्रहवें श्‍लोकतक भगवान्‌ने प्रभावरूपसे अपनी तेरह विभूतियोंका वर्णन किया । तात्पर्य है कि जिस-किसीमें जो कुछ प्रभाव है, महत्त्व है, तेज है, वह सब भगवान्‌का ही है, वस्तु, व्यक्ति आदिका नहीं ।

इस प्रकार भगवान्‌ने इन चारों अध्यायोंमें कुल मिलाकर अपनी एक सौ चौरानबे विभूतियोंका वर्णन किया है । इन सब विभूतियोंका तात्पर्य है कि वास्तवमें सब कुछ एक भगवान्‌ ही हैं । अतः साधकका जिस-किसी वस्तु, व्यक्ति आदिमें अधिक भाव हो, खिंचाव हो, उसमें वह भगवान्‌का ही चिन्तन करे ।