।। श्रीहरिः ।।

          




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन (अधिक) शुक्ल द्वादशी
वि.सं.२०७७, सोमवा
अमृतबिन्दु 




मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें अपने कर्तव्यका पालन कर सकता है । कर्तव्यका यथार्थ स्वरूप है‒सेवा अर्थात् संसारसे मिले हुए शरीरादि पदार्थोंको संसारके हितमें लगाना ।

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अपने कर्तव्यका पालन करनेवाले मनुष्यके चित्तमें स्वाभाविक प्रसन्नता रहती है । इसके विपरीत अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्यके चित्तमें स्वाभाविक खिन्नता रहती है ।

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साधक आसक्तिरहित तभी हो सकता है, जब वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको ‘मेरी’ अथवा ‘मेरे लिये’ न मानकर, केवल संसारकी और संसारके लिये ही मानकर संसारके हितके लिये तत्परतापूर्वक कर्तव्य-कर्मका आचरण करनेमें लग जाय ।

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वर्तमान समयमें घरोंमें, समाजमें जो अशान्ति, कलह, संघर्ष देखनेमें आ रहा है, उसमें मूल कारण यही है कि लोग अपने अधिकारकी माँग तो करते हैं, पर अपने कर्तव्यका पालन नहीं करते ।

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कोई भी कर्तव्य-कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता । छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा कर्म कर्तव्यमात्र समझकर (सेवाभावसे) करनेपर समान ही है ।

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जिससे दूसरोंका हित होता है, वही कर्तव्य होता है । जिससे किसीका भी अहित होता है, वह अकर्तव्य होता है ।

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राग-द्वेषके कारण ही मनुष्यको कर्तव्य-पालनमें परिश्रम या कठिनाई प्रतीत होती है ।

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जिसे करना चाहिये और जिसे कर सकते हैं, उसका नाम ‘कर्तव्य’ है । कर्तव्यका पालन न करना प्रमाद है, प्रमाद तमोगुण है और तमोगुण नरक है‒‘नरकस्तमउन्नाहः’ (श्रीमद्भागवत ११/१९/४३) ।

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अपने सुखके लिये किये गये कर्म ‘असत्’ और दूसरोंके हितके लिये किये गये कर्म ‘सत्’ होते हैं । असत्-कर्मका परिणाम जन्म-मरणकी प्राप्ति और सत्-कर्मका परिणाम परमात्माकी प्राप्ति है ।

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अच्छे-से-अच्छा कार्य करो, पर संसारको स्थायी मानकर मत करो ।

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जो निष्काम होता है, वही तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन कर सकता है ।

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दूसरोंकी तरफ देखनेवाला कभी कर्तव्यनिष्ठ हो ही नहीं सकता, क्योंकि दूसरोंका कर्तव्य देखना ही अकर्तव्य है ।

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अपने लिये कर्म करनेसे अकर्तव्यकी उत्पत्ति होती है ।

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अपने कर्तव्य (धर्म)-का ठीक पालन करनेसे वैराग्य हो जाता है‒‘धर्म तें बिरति’ (मानस ३/१६/१) । यदि वैराग्य न हो तो समझना चाहिये कि हमने अपने कर्तव्यका ठीक पालन नहीं किया ।

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अपने कर्तव्यका ज्ञान हमारेमें मौजूद है । परन्तु कामना और ममता होनेके कारण हम अपने कर्तव्यका निर्णय नहीं कर पाते ।

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चारों वर्णों और आश्रमोंमें श्रेष्ठ व्यक्ति वही है, जो अपने कर्तव्यका पालन करता है । जो कर्तव्यच्युत होता है, वह छोटा हो जाता है ।

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संसारके सभी सम्बन्ध अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये ही हैं, न कि अधिकार जमानेके लिये । सुख देनेके लिये हैं, न कि सुख लेनेके लिये ।

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एकमात्र अपने कल्याणका उद्देश्य होगा तो शास्त्र पढ़े बिना भी अपने कर्तव्यका ज्ञान हो जायगा । परन्तु अपने कल्याणका उद्देश्य न हो तो शास्त्र पढ़नेपर भी कर्तव्यका ज्ञान नहीं होगा, उल्टे अज्ञान बढ़ेगा कि हम जानते हैं !

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