(गत ब्लॉगसे आगेका)
हम नया-नया पकड़ते रहते हैं और भगवान् छुड़ाते रहते
हैं ! यह भगवान्की अत्यन्त कृपालुता है ! वे हमारा क्रियात्मक आवाहन करते हैं कि तुम
संसारमें न फँसकर मेरी तरफ चले आओ । अगर हम संसारको पकड़ना छोड़ दें तो महान् आनन्द मिल जायगा । जब कभी हमें शान्ति मिलेगी
तो वह कामनाओंके त्यागसे ही मिलेगी‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता
१२ । १२) ।
दूसरोंकी सेवा करनेसे बड़ी सुगमतासे इच्छाका त्याग
होता है । गरीब, अपाहिज, बीमार, बालक, विधवा, गाय
आदिकी सेवा करनेसे इच्छाएँ मिटती हैं । एक साधु कहते थे कि जब मेरा विवाह हुआ था,
एक दिन मेरेको एक आम मिला । पर मैंने वह आम अपनी स्त्रीको दे
दिया । इससे मेरे भीतर यह विचार उठा कि वह आम मैं खुद भी खा सकता था,
पर मैंने खुद न खाकर स्त्रीको क्यों दिया ?
इससे मेरेको यह शिक्षा मिली कि दूसरेको
सुख पहुँचानेसे अपने सुखकी इच्छा मिटती है । इसका नाम ‘कर्मयोग’ है
। संसारकी इच्छा शरीरकी प्रधानतासे
होती है । अतः विवेक-विचारपूर्वक शरीरके द्वारा दूसरोंकी सेवा करनेसे,
दूसरोंको सुख पहुँचानेसे इच्छा सुगमतापूर्वक मिट जाती है । सृष्टिकी रचना ही इस ढंगसे हुई है कि एक-दूसरेको सुख पहुँचानेसे, सेवा
करनेसे कल्याणकी प्राप्ति हो जाती है‒‘परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ’ (गीता
३ । ११) । शरीर संसारसे
ही पैदा हुआ है, संसारसे ही पला है,
संसारसे ही शिक्षित हुआ है,
संसारमें ही रहता है और संसारमें ही लीन हो जाता है अर्थात्
संसारके सिवाय शरीरकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । अतः संसारसे
मिले हुएको ईमानदारीके साथ संसारकी सेवामें अर्पित कर दें । जो कुछ करें, संसारके
हितके लिये ही करें । केवल संसारके हितका ही चिन्तन करें, हितका
ही भाव रखें, साथमें अपने आराम, मान-बड़ाई, सुख-सुविधा
आदिकी इच्छा न रखें तो परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी‒‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः’ (गीता
१२ । ४) ।
दूसरोंको सुख पहुँचानेकी अपेक्षा भी किसीको दुःख
न पहुँचाना बहुत ऊँची सेवा है । सुख पहुँचानेसे सीमित सेवा होती है, पर
दुःख न पहुँचानेसे असीम सेवा होती है । भलाई करनेसे ऊपरसे भलाई होती है, पर
बुराई न करनेसे भीतरसे भलाई अंकुरित होती है । बुराईका त्याग करनेके लिये तीन बातोंका
पालन आवश्यक है‒(१) किसीको बुरा नहीं समझें (२) किसीका बुरा नहीं चाहें और (३) किसीका
बुरा नहीं करें । इस प्रकार बुराईका
सर्वथा त्याग करनेसे हमारी वास्तविक आवश्यकताकी पूर्ति हो जायगी और मनुष्यजीवन सफल
हो जायगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे
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