।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक अमावस्या, वि.सं. २०७६ सोमवार
     सोमवती अमावस्या, अन्नकूट, गोवर्धन-पूजा
               सेवा कैसे करें ?



ऐसे आदमी बहुत कम मिलेंगे, जो वास्तवमें सेवा करते हैं । हम राम-नामका माहात्म्य बताते हैं, लोगोंको नाम-जपमें लगाते हैं, पर दूसरा कोई लोगोंको नाम-जपमें लगाता है तो वह इतना नहीं सुहाता । हमारे कहनेसे कोई नाम-जपमें लग जाय तो हम राजी होते हैं, पर दूसरेके कहनेसे कोई नाम-जपमें लग जाय तो उतने राजी नहीं होते, जब कि हमें उससे भी ज्यादा राजी होना चाहिये कि हमारा परिश्रम तो हुआ ही नहीं और काम हमारा हो गया !

कोई व्यक्ति हमारे मतको नहीं मानता, हमारे सिद्धान्तको नहीं मानता, प्रत्युत हमारे सिद्धान्तका खण्डन करता है, हमारी मान्यताका, हमारी जीवन-पद्धतिका खण्डन करता है, पर राम-नामका प्रचार करता है, लोगोंसे नाम-जपके लिये कहता है तो उससे हमारे भीतर क्या बुद्धि पैदा होती है ? हमें नामका प्रचार तो अच्छा लग जायगा, पर उसके कहनेसे लोग नाम-जप करते हैं‒यह अच्छा नहीं लगेगा, क्योंकि वह हमारे सिद्धान्तका, हमारे मतका, हमारी साधन-प्रणालीका खण्डन करता है । इस प्रकार हम खण्डनको जितना महत्त्व देते हैं, उतना नामके प्रचारको नहीं देते हैं । हम नामके प्रेमी नहीं है, हम अपने मतके, अपने गुरुके प्रेमी हैं । हमारे गुरुजीको मानो, तब तो ठीक है, पर हमारे गुरुजीको नहीं मानो और राम-राम करो तो कुछ नहीं होगा‒यह मतवालेकी बात है । अगर वास्तवमें हमें नामकी महिमा अभीष्ट है तो कोई नास्तिक-से-नास्तिक, नीच-से-नीच व्यक्ति भी नामकी महिमा कहे तो मन-ही-मन आनन्द आना चाहिये कि वाह-वाह, इसने बात बहुत बढ़िया कही । इसका नाम है‒सेवा ।

दूसरेका सदाव्रत बहुत अच्छा चलता है, वह बढ़िया भोजन देता है और सबका आदर करता है । लोगोंमें उसकी महिमा होती है । हम भी सदाव्रत खोलते हैं, पर हमारी महिमा नहीं होती तो हमारे भीतर ईर्ष्या होती है कि नहीं ? अगर ईर्ष्या होती है तो हमारे द्वारा बढ़िया सेवा नहीं हुई । वास्तवमें तो हमें खुशी होनी चाहिये कि वहाँ बढ़िया भोजन मिलता है, हमारे यहाँ तो साधारण भोजन मिलता है । हम उपकारका जो काम करते हैं, वही काम दूसरा शुरू कर दे तो उससे हमारेमें ईर्ष्या पैदा होती है, द्वेष पैदा होता है तो यह हम सेवा नहीं कर रहे हैं, सेवाका वहम है ।


किसी भी तरहसे, किसीके द्वारा ही सेवा हो जाय तो हम प्रसन्न हो जायँ । जो सेवा करता है, उसको देखकर और जिनकी सेवा होती है, उनको देखकर हम प्रसन्न हो जायँ कि वाह-वाह, कितनी बढ़िया बात है ! हमारे पास एक कौड़ी भी लगानेको नहीं हो, पर हम प्रसन्न हो जायँ, उस सेवामें सहमत हो जायँ तो हमारे द्वारा सेवा हो जायगी । बोलो, इसमें क्या कठिनता है ? इसमें कोई सामग्री नहीं चाहिये, अपना हृदय चाहिये । सेवा वस्तुओंसे नहीं होती है, हृदयसे होती है ।