।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं. २०७६ रविवार
               श्राद्धकी अमावस्या, दीपावली
               सेवा कैसे करें ?


असली दीवाली वह है‒हृदयका अन्धकार मिट जाय, भीतरका प्रकाश हो जाय
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सबको दीपावलीकी शुभकामना

श्रोता‒सेवा करनेके लिये हमारे पास न तो धन है, न बल है, न योग्यता है, न सामर्थ्य है; कोई भी सामग्री हमारे पास नहीं है, पर हम सेवा करना चाहते हैं तो कैसे करें ?

स्वामीजी‒बहुत बढ़िया प्रश्न है । इसका उत्तर भी घटिया नहीं होगा, ध्यान देकर सुनना । सेवा करनेका अर्थ है‒दूसरेका हित हो और प्रसन्नता हो । वर्तमानमें उसकी प्रसन्नता हो और परिणाममें उसका हित (कल्याण) हो, इसके सिवाय सेवा और क्या होती है ?

जब हमारे पास शक्ति ही नहीं, तो फिर हम दूसरेकी प्रसन्नता कैसे लें‒इसके लिये आपको अपनी दृष्टिमें बहुत बढ़िया बात बताता हूँ । एक धनी आदमी है । उसको घाटा लग जाय, कोई भयंकर बीमारी हो जाय, बेटा मर जाय, ऐसी हालतमें आप उसके दुःखमें सहमत हो जाओ कि आपका बेटा मर गया, यह बहुत बुरी बात हुई । आपको घाटा लग गया, यह बड़ा बेठीक काम हुआ । इस तरह हृदयसे उसके दुःखमें सम्मिलित हो जाओ तो वह प्रसन्न हो जायगा, उसकी सेवा हो जायगी । ऐसे ही किसीके पास बहुत धन-सम्पत्ति हो जाय, लड़का बड़ा होशियार हो जाय तो उसे देखकर हृदयसे खुश हो जाओ और कहो कि वाह-वाह बहुत अच्छा हुआ । इससे वह प्रसन्न हो जायगा ।

सन्तोंके लक्षणोंमें आया है‒‘पर दुख दुख सुख सुख देखे पर’ (मानस ७/३८/१) । दूसरोंके दुःखसे दुःखी हो जायँ और दूसरोंके सुखसे सुखी हो जायँ‒यह सेवा आप बिना रुपये-पैसेके, बिना बलके, बिना सामग्रीके कर सकते हैं । दूसरोंको दुःखी देखकर आप दुःखी हो जाओ कि ‘हे नाथ ! क्या करें ? हमारे पास कोई सामग्री नहीं, धन नहीं, बल नहीं, जिससे हम दूसरोंको सुखी कर सकें, हम क्या करें ?’‒इस तरह आप हृदयसे दुःखी हो जाओ और दूसरोंको सुखी देखकर हृदयसे प्रसन्न हो जाओ तो यह आपकी बड़ी भारी सेवा होगी । जिसके हृदयमें ऐसा भाव होता है, उस पुरुषके दर्शनमात्रसे लोगोंको शान्ति मिलती है ।


धन आदिसे हम दूसरोंकी सेवा करेंगे, उपकार करेंगे, यह बहुत स्थूल बुद्धि है । मैं तो कहता हूँ कि नीच बुद्धि है । आपने सेवाको महत्त्व नहीं दिया है, धनको महत्त्व दिया है । जो धनको महत्त्व देता है, वह नीच है । जो आपके हाथका मेल है, उसको आप अपनेसे भी बढ़कर महत्त्व देते हो और लोगोंकी सेवाके लिये भी उसकी आवश्यकता समझते हो‒यह बहुत खोटी (खराब) बुद्धि है । धन आदिसे सेवा करनेपर अभिमान होता है, तिरस्कार होता है । जिसकी सेवा करोगे, उसपर भी रोब जमाओगे कि ‘हमने इतना तुमको दिया है, इतनी सहायता की है ।’ वह अगर आपके विरुद्ध हो जायगा तो निन्दा करोगे कि ‘देखो हमने इसकी इतनी सहायता की और यह हमारा विरोध करता है ।’ इस प्रकार संघर्ष पैदा होगा ! आप अपनी विद्वात्तासे सेवा करोगे और कहीं दूसरा भी ऐसे करेगा तो ईर्षा पैदा होगी । हम बढ़िया व्याख्यान देते हैं और दूसरेका व्याख्यान हमारेसे भी बढ़िया हो गया तो ईर्षा होगी । कहते हो कि जनताकी सेवा करते हैं, पर वास्तवमें सेवा नहीं करते हो, लड़ाई करते हो ।