क्रोध और मूढ़ता (मोह) उतने भयंकर और नुकसान करनेवाले
नहीं, जितना स्वार्थ-दोष है । साधकके लिये स्वार्थ-बुद्धि बहुत नुकसानदायक है । वह भजन, ध्यान, स्वाध्याय आदि तो करने लग जाता है, पर
स्वार्थ-दोषकी ओर उसकी वृत्ति नहीं जाती कि इधर भी अनर्थ हो रहा है । शरीरके आराम, भोग, सुख, संग्रहकी इच्छा और किसी तरह अपना मतलब
सिद्ध करनेका भाव बड़ा भारी नुकसान करता है । इससे आदमी ऊँचा नहीं उठ सकता ।
इसलिये सज्जनो ! अपने स्वभावका सुधार करो ।
स्वार्थ-बुद्धिके
त्यागकी बड़ी भारी आवश्यकता है । इस
स्वार्थके कारण झूठ, कपट, बेईमानी, ठगी, धोखेबाजी, विश्वासघात आदि न जाने कितने-कितने
पाप हो रहे हैं, जिनका कोई अन्त नहीं । जैसे भूखके लिये
अन्नकी और प्यासके लिये जलकी जरूरत होती है, ऐसे ही इस जमानेमें स्वार्थ-त्यागियोंकी
बड़ी भूख लगी है, भूखा मर रहा है हमारा देश ! इसलिये कोई आदमी थोड़ा भी
स्वार्थका त्याग और दूसरेका हित करता है, तो वह बहुत ही जल्दी विलक्षण हो सकता है
।
दूसरेको
सुख कैसे मिले ? दूसरेको लाभ कैसे हो ? दूसरेका हित कैसे हो ?‒यह एक भाव रखनेसे
स्वार्थका बड़ी सुगमतासे त्याग हो जाता है और स्वभावका सुधार हो जाता है । परन्तु जो अपने स्वार्थके लिये दूसरेको सुख पहुँचाता है कि
दूसरेपर मेरा अच्छा असर पड़ेगा, दूसरे मुझे अच्छा समझेंगे, तो इससे स्वभावमें असली
सुधार नहीं होता । ऐसा करना सेवाकी बिक्री करना है । अतः दूसरेको
इस तरह सुख पहुँचाये, इस तरह सेवा करे कि दूसरेको पता भी न लगे । जिसकी सेवा की
जाय, उसे भी पता न लगे और दूसरोंको तो बिलकुल पता न लगे । तब कहीं स्वभाव सुधर
सकता है ।
मनुष्य जो अच्छा कार्य करता है, बदलेमें वह सुख-आराम,
मान-बड़ाई आदि खरीद लेता है । अच्छा कार्य करते ही वह अभिमानको पकड़ लेता है । यह अभिमान सम्पूर्ण आसुरी सम्पत्तिकी जड़ है । जैसे
महाभारतके नलोपाख्यानमें आया है कि बहेड़ेकी छायामें कलियुग रहता है, ऐसे ही इस
अभिमानकी छायामें कलियुग रहता है । जितने दुर्गुण-दुराचार हैं, सब इसकी छायामें
रहते हैं । यह अभिमान सब किये-करायेको नष्ट कर देता है ।
और आजकल इस अभिमानको ही हर एक बातसे खरीदते हैं ! दान-पुण्य करें तो,
भजन-स्मरण करें तो, जप-ध्यान करें तो, उपकार करें तो, सेवा करें तो‒इस अभिमानको ही
खरीदते हैं, जो आसुरी-सम्पत्तिका असली मूल है । इसका त्याग करनेसे स्वभाव सुधरेगा । कोई मुश्किल काम नहीं है । विचार पक्का हो जाय कि हमें तो अभिमान त्यागना ही है, तो त्याग हो
जायगा । नहीं तो बड़ी हिम्मतका काम है । रोजाना तीन लाख
नाम-जप कर लेंगे और सब काम कर लेंगे, पर अभिमान नहीं छोड़ेंगे ! साधु हो जायेंगे,
त्याग कर देंगे, पर ‘मैं त्यागी हूँ’ ऐसे त्यागका अभिमान वैसा-का-वैसा रखेंगे ।
अहंकार राक्षस महान् दुःखदायी सब भाँती ।
जो छूटे इस दुष्टसे
सोई पावै शान्ति ॥
यह अहंकार महान् राक्षस है । इसलिये सज्जनो ! स्वभावको
शुद्ध, निर्मल बनाओ । जो दुर्गुण-दुराचार दीखे, उसे
निकालो । फिर भजन-स्मरणका बहुत विलक्षण प्रभाव होगा । ये राक्षस (स्वार्थ
और अभिमान) साथमें बैठे हैं, इसलिये उसका प्रभाव नहीं होने देते; साधकको असंग नहीं
होने देते । इसलिये स्वभावका सुधार करनेकी, उसे शुद्ध बनानेकी बड़ी भारी आवश्यकता
है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘तात्विक प्रवचन’ पुस्तकसे
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