ऐसी-ऐसी बातें याद आती हैं कि अगर एकपर भी ध्यान दिया जाय,
तो एकदम लाभ हो जाय । ऐसी कई बातें हैं । उनमेंसे एक बात कहता हूँ । मनुष्योंने प्रायः भजन, स्मरण, जप, कीर्तन, सत्संग, स्वाध्याय,
व्रत-नियम आदिको महत्त्व दे रखा है । इसमें भी भजन-स्मरणको महत्त्व देते हैं ।
भगवान्के सम्बन्धकी जितनी महिमा है, उतनी महिमा और किसीकी नहीं है, यह सच्ची बात है । परन्तु फिर भी जैसा लाभ होना चाहिये, वैसा नहीं हो रहा है ।
उसका कारण क्या है ? वह यह है कि मनुष्य अपने स्वभावके सुधारकी तरफ ध्यान नहीं
देता । पुराना जैसा स्वभाव है वैसा ही
करते हैं । तो उससे क्या होगा ? किया हुआ भजन-स्मरण कहीं जायगा नहीं, उसका नाश
नहीं होगा, परन्तु
वर्तमानमें उसका जीवन शुद्ध, निर्मल चमकेगा नहीं ।
स्वभावमें
दो भयंकर व्याधियाँ हैं‒संग्रह करना और सुख भोगना । इससे स्वार्थ और
अभिमान‒ये विशेष दोष आते हैं । इनसे स्वभाव बहुत बिगड़ता है । अपना भी बिगाड़ होता
है और दूसरोंका भी । तो अगर
पारमार्थिक उन्नति चाहते हैं तो स्वभावका सुधार करें । और जो स्वभावका सुधार है,
वह इतने ऊँचे दर्जेकी चीज है कि भगवान्को आस्तिक मानते हैं, नास्तिक नहीं मानते, परन्तु
सुधरे हुए स्वभाववालोंको आस्तिक और नास्तिक‒दोनों ही मानेंगे । मनुष्य किसी
सम्प्रदायका क्यों न हो, उसका सुधरा हुआ स्वभाव सभीको अच्छा लगेगा, सबके भीतर उसका
असर पड़ेगा । जिसका स्वभाव बिगड़ा हुआ है, वह अपने सम्प्रदायवालोंको अच्छा नहीं
लगेगा, फिर दूसरे सम्प्रदायवाले उसका क्या आदर करेंगे !
अपने स्वभावका सुधार करना बहुत आवश्यक है । भगवान्ने तो
इतना कह दिया कि दैवी सम्पत्ति मुक्तिके लिये है और आसुरी सम्पत्ति बाँधनेके लिये
है‒
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
(गीता १६/५)
स्वार्थबुद्धि, भोगबुद्धि‒यही आसुरी स्वभाव है ।
असुर उसे नहीं कहते, जिसके सींग होते हैं । जो स्वार्थमें पड़कर पैसोंके लिये, भोगके लिये अनर्थ करते
हैं, वे असुर हैं । भगवान्ने गीतामें कहा है कि राक्षसी, आसुरी और मोहिनी
स्वभाववाले लोग मेरा भजन नहीं करते, अपितु मेरी अवहेलना करते हैं, तिरस्कार करते
हैं (गीता ९/११-१२) । राक्षसी स्वभाववाले वे हैं, जो
अपने स्वार्थके लिये, अपने सुखके लिये दूसरोंका नाश करें और मोहिनी स्वभाववाले वे
हैं जो मूढ़तासे बिना किसी मतलबसे दूसरोंका नाश करें, दूसरोंका नुकसान करें ।
आजकल आसुरी स्वभाव बहुतोंमें है । क्रोध तो आने-जानेवाला है, मूढ़ता सत्संगसे नष्ट
हो जाती है, परन्तु यह स्वार्थ-दोष हरदम रहता है । अपने शरीरके सुख-आराम और
अनुकूलताकी इच्छा आसुरी प्रकृति है, जो हरदम रहती है ।
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