।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण एकादशी, वि.सं. २०७६ गुरुवार
               रम्भा एकादशी-व्रत (सबका)
            भगवान्‌में अपनापन



तात्पर्य है कि अगर वस्तुएँ अपनी दीखती हैं तो वे केवल दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये, सदुपयोग करनेके लिये अपनी हैं । अगर व्यक्ति अपने दीखते हैं तो वे केवल निःस्वार्थभावसे सेवा करनेके लिये अपने हैं । अपने सुख-आरामके लिये कुछ भी अपना नहीं है । अपने सुख-आरामके लिये वस्तु-व्यक्तिको अपना मानना जन्म-मरणका कारण है‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । इसलिये जो संसारमें कुछ भी अपना मानता है, उसको कुछ भी नहीं मिलता और जो कुछ भी अपना नहीं मानता, उसको सब कुछ मिलता है अर्थात् भगवान् मिलते हैं ।

अपनी बुद्धि, विचार, सामर्थ्यसे वस्तुओंका दुरुपयोग न करके उनका सदुपयोग करनेसे वस्तुओंसे माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है और निःस्वार्थभावसे सेवा करनेसे व्यक्तियोंसे माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है । सम्बन्ध मिटनेसे मुक्ति हो जाती है । यहाँ शंका होती है कि संसारसे सम्बन्ध विच्छेद हो जानेपर भी जीवन्मुक्त महापुरुष दूसरोंकी सेवा (हित) में क्यों लगे रहते हैं ? इसका समाधान है कि साधनावस्थामें ही उनका स्वभाव प्राणिमात्रका हित करनेका रहा है‒‘सर्वभूतहिते रताः’ (गीता ५/२५, १२/४), इसलिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष न रहनेपर भी उनमें सबका हित करनेका स्वभाव रहता है‒‘स्वभावस्तु प्रवर्तते’ (गीता ५/१४) । तात्पर्य है कि दूसरोंका हित करते-करते जब उनका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब उनको हित करना नहीं पड़ता, प्रत्युत पहलेके स्वभावसे उनके द्वारा स्वतः दूसरोंका हित होता है ।

भगवान्‌के सिवाय हम जिसको भी अपना मानते हैं, वह अशुद्ध हो जाता है; क्योंकि ममता ही मल (अशुद्धि) है‒‘ममता मल जरि जाइ’ (मानस ७/११७ क) । इतना ही नहीं, उसको अपना मानकर हम उसके मालिक बनना चाहते हैं, पर वास्तवमें उसके गुलाम बन जाते हैं; उसको ठीक करना चाहते हैं, पर वास्तवमें वह बेठीक हो जाता है । हम जिन शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहम् तथा स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब, धन, जमीन, मकान आदिको अपना मानते हैं, वे सब अशुद्ध हो जाते हैं और उनके सुधारमें बाधा लग जाती है । परन्तु उनको अपना न माननेसे वे भगवान्‌की शक्तिसे शुद्ध हो जाते हैं, क्योंकि वास्तवमें वे भगवान्‌के ही हैं ।

तात्पर्य है कि वस्तुको अपना माननेसे वह अशुद्ध हो जाती है और हम अनाथ तथा पराधीन हो जाते हैं । अगर हम वस्तुको अपना न मानें तो वस्तु शुद्ध हो जायगी और हमें अपने सनाथपनेका तथा स्वाधीनताका अनुभव हो जायगा ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒‘सहज साधना’ पुस्तकसे