।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण नवमी, वि.सं. २०७६ रविवार
भगवद्भक्तिका रहस्य
        



(२) इस जीवको संसारके किसी भी उच्‍च-से-उच्‍च पद या पदार्थकी प्राप्ति क्यों न हो जाय, इसकी भूख तबतक नहीं मिटती, जबतक यह अपने परम आत्मीय भगवान्‌को प्राप्त नहीं कर लेता; क्योंकि भगवान्‌ ही ऐसे हैं, जिनसे सब तरहकी पूर्ति हो सकती है । उनके सिवा सभी अपूर्ण हैं । पूर्ण केवल एक वे ही हैं और वे पूर्ण होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति बिना कारण ही प्रेम और कृपा करनेवाले परम सुहृद् हैं, साथ ही वे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् भी हैं । कोई सर्वसुहृद् तो हो पर सब कुछ न जानता हो, वह हमारे दुःखको न जाननेके कारण उसे दूर नहीं कर सकता और यदि सब कुछ जानता हो पर सर्वसमर्थ न हो तो भी असमर्थताके कारण दुःख दूर नहीं कर सकता । एवं सब सब कुछ जानता भी हो और समर्थ भी हो, तब भी यदि सुहृद् न हो तो दुःख देखकर भी उसे दया नहीं आती, जिससे वह हमारा दुःख दूर नहीं कर सकता । इसी प्रकार सुहृद् भी हो अर्थात् दयालु भी हो और समर्थ भी हो, पर हमारे दुःखको न जानता हो, तो भी काम नहीं होता तथा सुहृद् और सर्वज्ञ हो, पर समर्थ न हो तो वह हमारे दुःखको जानकर भी दुःख दूर नहीं कर सकेगा; क्योंकि उसकी दुःखनिवारणकी सामर्थ्य ही नहीं । किन्तु भगवान्‌में उपर्युक्त तीनों बातें एक साथ हैं ।

उन सर्वसुहृद्, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् भगवान्‌पर ही निर्भर होकर जो उनकी भक्ति करता है, वही भक्त है । भगवान्‌की भक्तिके अधिकारी सभी तरहके मनुष्य हो सकते हैं । भगवान्‌ने गीताके नवें अध्यायके ३० वें, ३२ वें  और ३३ वें श्लोकमें बतलाया है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री, पापयोनि और दुराचारी–ये सातों ही मेरी भक्तिके अधिकारी हैं ।

अपि चेत् सुदुराचारो    भजते   मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः     सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥
किं पुनर्ब्राह्मणाः  पुण्या   भक्ता  राजर्षयस्तथा ।

‘यदि कोई अतिशय भी दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है–अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है ।’

‘हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि–चाण्डालादि जो कोई   भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परम गतिको ही प्राप्त होते हैं ।’

‘फिर इसमें तो कहना ही क्या है कि पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भक्तजन मेरे शरण होकर परम गतिको प्राप्त होते हैं ।’


यहाँ भगवान्‌ने जातिमें सबसे छोटे और आचरणोंमें भी सबसे गिरे हुए–दोनों तरहके मनुष्योंको ही भगवद्भक्तिका अधिकारी बतलाया । यद्यपि विधि-निषेधके अधिकारी मनुष्य ही होते हैं, तो भी ‘पापयोनि’ शब्द तो इतना व्यापक है कि इससे गौणीवृत्तिसे पशु-पक्षी आदि सभी प्राणी लिये जा सकते हैं । अब रहे भावके अधिकारी ।