।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण अष्टमी, वि.सं. २०७५ बुधवार
प्राप्त तत्त्वका अनुभव
        


स्वयं (स्वरुप) के सामने एक तो प्रतीति (संसार) है और एक प्राप्त (परमात्मा) है । प्रतीतिके सम्मुख होना बन्धन है और प्राप्तके सम्मुख होना मुक्ति है । वास्तविक दृष्टिसे देखा जाया तो मुक्तिका अभाव कभी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं । प्राप्तकी सत्ता न मानकर प्रतीतिकी सत्ता मानना ही बन्धन है और प्रतीतिकी सत्ता न मानकर प्राप्तकी सत्ताका अनुभव करना ही मुक्ति है । अतः बन्धन और मोक्ष केवल मान्यतामें है, स्वरुपमें नहीं ।

प्रश्न–जो प्राप्त है, वह परमात्मतत्त्व नहीं दीखता और जो प्रतीति है, वह संसार दीखता है–इसका क्या कारण है ?

उत्तर–जैसे, शरीरका मुख्य आधार हड्डी है, पर वह दीखती नहीं । जो मुख्य आधार नहीं है, वह चमड़ी दीखती है । जिसमें ताकत है, वह चीज दीखती नहीं और जो चीज दीखती है, उसमें ताकत नहीं । ऐसे ही परमात्मा संसारके मुख्य आधार हैं, पर वे नहीं दीखते, प्रत्युत संसार दीखता है । जो वास्तवमें है, वह दीखता नहीं और जो दीखता है, वह वास्तवमें है नहीं ।

जैसे हड्डी पिताके अंशसे और चमड़ी माताके अंशसे उत्पन्न होती है । अतः शरीर माता-पिताका अंश है । परन्तु शरीरमें न माता दीखती है, न पिता दीखता है । ऐसे ही संसार प्रकृति और परमात्माके संयोगसे उत्पन्न होता है ।[*] परन्तु संसारमें न प्रकृति दीखती है, न परमात्मा दीखते है, प्रत्युत केवल प्रकृतिका कार्य दीखता है !

शरीरमें गलेसे ऊपरी भागको ‘उत्तमांग’ कहते हैं; क्योंकि श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण–ये पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ उसमें स्थित हैं । उत्तमांगमें भी ‘मुख’ प्रधान है; क्योंकि रसना (ज्ञानेन्द्रिय) और वाक् (कर्मेन्द्रिय)–ये दोनों इन्द्रियाँ मुखमें स्थित हैं । हड्डी भी मुखमें ही दाँतरूपसे दिखायी देती है । ऐसे ही संसारमें जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुषको भी मुखके समान जानना चाहिये । मुख प्रायः बन्द रहता है, पर विशेष प्रसन्न होनेसे मुख खुल जाता है और उसमें दाँत दीखने लग जाते हैं । ऐसे ही जिज्ञासुके सामने आनेपर वे महापुरुष विशेष प्रसन्न हो जाते हैं तो परमात्मतत्त्वका बोध प्रकट हो जाता है–

‘ब्रूयः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरुवो गुह्यमप्युत ।’
                             (श्रीमद्भागवत १/१/८, १०/१३/३)

गुढ़उ  तत्त्व  न साधु दुरावहिं ।
आरत अधिकारी जहँ पावहिं ॥
                                      (मानस १/११०/१)

जैसे बछड़ा सामने आ जाय तो गायके स्तनोंमें दूध आ जाता है, ऐसे ही जिज्ञासु सामने आ जाय तो उस महापुरुषकी कृपा उमड़ पड़ती है । जिज्ञासु अपनी जिज्ञासाके अनुसार जितना ज्ञान ले सकता है, उतना ले लेता है ।

नारायण !   नारायण !!   नारायण !!!

–‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे




[*] मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्हयम् ।
   सम्भवः  सर्वभूतानां  ततो  भवति  भारत ॥
   सर्वयोनिषु कौन्तेय  मूर्तयः  सम्भवन्ति  यः ।
   तासां  ब्रह्म  महद्योनिरहं  बीजप्रदः  पिता ॥
                                                             (गीता १४/३-४)