है
सो सुन्दर है
सदा, नहिं सो
सुन्दर नाहिं
।
नहिं
सो परगट
देखिये,
है सो दिखे
नाहिं ॥
कितनी
विचित्र बात
है कि
परमात्मा
हैं, पर वे दीखते
नहीं और संसार
नहीं है, पर वह
दीखता है !
इसका कारण यह
है कि हमारे
पास देखनेकी
जो शक्ति है,
वह सब
संसारकी है ।
जिस धातुका
संसार है, उसी
धातुकी
हमारी इन्द्रियाँ
और अन्तःकरण
(मन-बुद्धि)
हैं । इसलिये
उनसे संसार
ही दीखेगा,
परमात्मा
कैसे
दीखेंगे ? इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि
प्रकृतिके
अंश हैं ।
प्रकृतिके
अंशद्वारा
प्रकृतिसे
अतीत
तत्त्वको
कैसे देखा जा
सकता है ?
प्रकृतिसे
अतीत
परमात्मतत्त्वको
तो अपने-आपसे
अर्थात्
स्वयंसे ही
देखा जा सकता
है; क्योंकि
स्वयं
परमात्माका
अंश है ।
तात्पर्य है
कि
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि
तथा संसार
तत्त्वसे एक
(नाशवान्, जड़)
हैं और स्वयं
तथा
परमात्मा
तत्त्वसे एक
(अविनाशी,
चेतन) हैं ।
विचार करें
कि क्या
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि
और
परमात्माकी
तात्त्विक
एकता है ?
कदापि नहीं ।
फिर उनके
द्वारा
परमात्माको
कैसे देखा
अथवा
प्राप्त
किया जा सकता
है ? असम्भव
बात है । अतः हम
स्वयंसे
देखेंगे तो
परमात्मा
दीखेंगे और शरीरसे
देखेंगे तो
संसार
दीखेगा । रहनेवालेसे
रहनेवाला ही
दीखेगा और
बदलनेवालेसे
बदलनेवाला
ही दीखेगा ।
स्वयंसे
परमात्मा
कैसे दीखते
हैं‒इसपर
विचार करें । प्रत्येक
मनुष्यको
‘मैं हूँ’‒इस
रूपमें अपनी
सत्ता-
(होनापन-) का
अनुभव होता
है । ‘मैं हूँ’‒इसमें
‘मैं’
प्रकृतिका
अंश है और ‘हूँ’
परमात्माका
अंश है । अतः
‘मैं’ की ‘नहीं’
के साथ और ‘हूँ’
की ‘है’ के साथ
एकता है । ‘हूँ’
और ‘है’ का भेद
‘मैं’-पनके
कारण ही है ।
अगर ‘मैं’-पन न
रहे तो ‘हूँ’
नहीं रहेगा,
प्रत्युत ‘है’
ही रहेगा ।
तात्पर्य यह
हुआ कि
स्वयंमें जो
सत्ता अर्थात्
अपना होनापन
है, वह
वास्तवमें
परमात्माका
ही है । वह
होनापन सब
जगह समान
रीतिसे
स्वतः-स्वाभाविक
परिपूर्ण है ।
हमसे
यह भूल होती
है कि हम
परमात्मामें
संसारको
देखते हैं,
जबकि देखना
चाहिये
संसारमें
परमात्माको ।
‘नहीं’ में ‘है’
को देखना तो
सही है, पर ‘है’
में ‘नहीं’ को
देखना गलती
है; क्योंकि
परमात्मा
हैं और संसार
नहीं है । इसलिये
गीतामें आया
है‒
समं
सर्वेषु
भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्
।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं
यः पश्यति स
पश्यति ॥
(१३/२७)
‘जो
नष्ट होते
हुए
सम्पूर्ण
प्राणियोंमें
परमात्माको
नाशरहित और
समरूपसे
स्थित देखता
है, वही
वास्तवमें
सही देखता है ।’
ऐसा
कोई क्षण
नहीं है,
जिसमें
संसार न
बदलता हो ।
बदलना-ही-बदलना
इसका स्वरूप
है । परन्तु
परमात्मा
नहीं
बदलनेवाले
हैं । संसार
रहे अथवा
नष्ट हो जाय,
वे
नित्य-निरन्तर
ज्यों-के-त्यों
ही रहते हैं,
उनमें कोई
फर्क नहीं
पड़ता । संसार
कभी एक क्षण
भी टिकता
नहीं और परमात्मतत्त्व
कभी एक क्षण
भी मिटता
नहीं ।
इसलिये जो
बदलनेवाले
नाशवान्
संसारको न
देखकर
निरन्तर
रहनेवाले
अविनाशी परमात्माको
देखता है, वही
सही देखता है‒‘विनश्यत्स्वविनश्यन्तं
यः पश्यति स
पश्यति’ ।
परन्तु जो
परमात्माको
न देखकर
संसारको
देखता है, वह
सही नहीं
देखता‒
योऽन्यथा
सन्तमात्मानमन्यथा
प्रतिपद्यते
।
किं
तेन न कृतं
पापं
चौरेणात्मापहारिणा
॥
(महा॰ उद्योग॰ ४२/३७)
‘जो
अन्य
प्रकारका
(अविनाशी)
होते हुए भी
आत्माको
अन्य
प्रकारका
(विनाशी शरीर)
मानता है, उस आत्मघाती
चोरने कौन-सा
पाप नहीं
किया
अर्थात्
सभी पाप कर
लिये ।’
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन खोजा
तिन पाइया’
पुस्तकसे
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