।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७७ रविवार
गीताका ज्ञेय-तत्त्व


श्रीमद्भगवद्गीताके अनुसार ज्ञेयका अर्थ परब्रह्म परमात्मा है । विचार करनेपर प्रतीत होता है कि ज्ञेय उसे कहते हैं जो जाना जा सके, जानने योग्य हो अथवा जिसे जानना आवश्यक हो । इन तीनोंमें प्रथम जाना जा सकनेवाला ज्ञेय है संसार; क्योंकि यह नश्वर जगत् ही इन्द्रियोंके द्वारा या अन्तःकरणके द्वारा जाना जाता है तथा जिन साधनोंसे हम संसारको जानते हैं, वे साधन भी वास्तवमें इस ज्ञेय संसारके अन्तर्गत हैं । इस संसारका जानना भी उपयोगी है, पर वह जानना है उसके त्यागके लिये । अर्थात् यह संसार ज्ञेय होते हुए भी त्याज्य है । वस्तुतः ज्ञेय एकमात्र परमात्मा ही हैं । इसे गीताने स्पष्ट कहा है–

                      वेदैश्च सर्वैरहमेव वैद्यः । (१५/१५)
                      वेद्यं पवित्रम्– (९/१७)

तेरहवें अध्यायमें श्रीभगवान्‌ने ज्ञानके बीस साधनोंका नाम ‘ज्ञान’ बताकर उन साधनोंसे जिसका ज्ञान होता है, वह ज्ञेय-तत्त्व परमात्मा है–यह बात स्पष्ट कही है–

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं  ब्रह्म   न  सत्तन्नासदुच्यते ॥
                                                 (गीता १३/१२)

इस श्लोकके पहले चरणमें ज्ञेय-तत्त्वको बतलानेकी प्रतिज्ञा करते हैं, दूसरे चरणमें जाननेका फल अमृतकी प्राप्ति बतलाते हैं, तीसरे चरणमें उस ज्ञेय-तत्त्वकी अलौकिकताका कथन करते हैं कि वह न सत् कहा जा सकता है और न असत् ! इस प्रकार इस श्लोकके द्वारा परमात्माके निर्गुण-निराकार रूपका वर्णन करते हैं । अगले श्लोकमें परमात्माके सगुण-निराकार रूपका वर्णन करते हैं–

सर्वतःपाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः  श्रुतिमल्लोके  सर्वमावृत्य   तिष्ठति ॥
                                               (गीता १३/१३)


‘सब जगह उनके हाथ-पैर हैं, सब जगह उनकी आँखें, सिर और मुँह हैं और सब जगह वे कानवाले हैं तथा सबको धेरकर वे स्थित हैं ।’ जैसे सोनेके ढेलेमें सब जगह सब गहने हैं, जैसे रंगमें सब चित्र होते हैं, जैसे स्याहीमें सब लिपियाँ होती हैं, जैसे बिजलीके एक होनेपर भी उससे होनेवाले विभिन्न कार्य यन्त्रोंकी विभिन्नतासे विभिन्न रूप धारण करते हैं–एक ही बिजली बर्फ जमाती है, अँगीठी जलाती है, लिफ्टको चढ़ाती-उतारती है, ट्राम तथा रेलको चलाती है, शब्दको प्रसारित करती तथा रेकार्डमें भर देती है, पंखा चलाती है, प्रकाश करती है–इस प्रकार उससे अनेकों परस्पर विरुद्ध और विचित्र कार्य होते देखे जाते हैं । इसी प्रकार संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय आदि अनेक परस्पर विरुद्ध और विचित्र कर्म एक ही परमात्मासे होते हैं; पर वे परमेश्वर एक ही हैं–इस तत्त्वको न समझनेके कारण ही लोग कहते हैं कि जब परमात्मा एक है, तब संसारमें कोई सुखी और कोई दुःखी क्यों हैं ? उन्हें पता नहीं कि जो ब्रह्म निर्गुण, निराकार तथा मन-वाणी और बुद्धिका अविषय है, वही सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाला सगुण-निराकार परमेश्वर है ।