।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७७ शनिवार
गीतामें चरित्र-निर्माण


चरित्रहीन मनुष्य पशुओं तथा नारकीय जीवोंसे भी नीचा है; क्योंकि पशु और नारकीय जीव तो पहले किए हुए पाप-कर्मोंका फल भोगकर मनुष्यताकी तरफ आ रहे हैं, पर चरित्रहीन मनुष्य पापोंमें लगकर पशुता तथा नरकोंकी तरफ जा रहे है ! ऐसे मनुष्यका संग भी पतन करनेवाला है । इसलिये कहा है–

बरु भल बास नरक कर ताता ।
 दुष्ट  संग  जनि  देइ  बिधाता ॥
                                                   (मानस ५/४६/४)

अतः अपना चरित्र सुधारनेके लिये भगवान्‌के सम्मुख हो जायँ कि मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान्‌ मेरे हैं । मैं संसारका नहीं हूँ, संसार मेरा नहीं है ।

मनुष्यसे भूल यह होती है कि जो अपने नहीं हैं, उन सांसारिक वस्तुओंको तो अपना मान लेता है और जो वास्तवमें अपने हैं, उन भगवान्‌को अपना नहीं मानता । वास्तवमें देखा जाय तो सदुपयोग करनेके लिये ही सांसारिक वस्तुएँ अपनी हैं और अपने-आपको देनेके लिये ही भगवान्‌ अपने हैं । कारण कि वस्तुएँ संसारकी हैं, इसलिये उन्हें संसारकी सेवामें अर्पित करना है और मनुष्य स्वयं भगवान्‌का है, इसलिये स्वयंको भगवान्‌के अर्पित करना है । न तो संसारसे कुछ लेना है और न भगवान्‌से ही कुछ लेना है । अगर लेना ही है तो केवल भगवान्‌को ही लेना है ।

सांसारिक वस्तुओंकी कामनासे संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है । कामना ममतासे उत्पन्न होती है अर्थात् शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदिको अपना माननेसे कामना उत्पन्न होती है । अब विचार करें कि जिन शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदिको हम अपना मानते हैं, उनपर हमारा स्वतन्त्र अधिकार है क्या ? उनको जितने दिन चाहें, उतने दिन रख सकते हैं क्या ? खुद उनके साथ सदा रह सकते हैं क्या ? अगर कहा जाय कि नहीं तो फिर उनमें अपनापन छोड़नेमें क्या कठिनता है ? उनमें भूलसे माना हुआ अपनापन छोड़नेसे कामना उत्पन्न नहीं होगी । कामना उत्पन्न न होनेसे भगवान्‌में स्वतः अपनापन होगा; क्योंकि वे सदासे अपने हैं और नित्यप्राप्त हैं । भगवान्‌में अपनापन होनेसे सब आचरण और भाव शुद्ध हो जायँगे ।

शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि पदार्थ सत् हैं या असत् हैं–यह विकल्प तो हो सकता है, पर उनके साथ हमारा सम्बन्ध असत् है–इसमें संदेहकी सम्भावना ही नहीं है । असत्‌को असत् जान लेनेपर असत्-सम्बन्धका त्याग सुगमतापूर्वक हो जाता है और भगवान्‌की स्म्मुखता होनेपर भगवान्‌का नित्य सम्बन्ध स्वतः जाग्रत् हो जाता है । फिर मनुष्यमें सच्‍चरित्रता स्वतः आ जाती है और वह चरित्र-निर्माणका आचार्य बन जाता है अर्थात् उसका चरित्र दूसरोंके लिये आदर्श हो जाता है–

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
                                          (गीता ३/२१)

‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, दूसरे लोग भी (उसके आचरणोंको आदर्श मानते हुए) वैसा-वैसा ही आचरण करने लगते हैं; और वह जो प्रमाण देता है, समस्त मनुष्यसमुदाय उसीके अनुसार बर्ताव करने लग जाता है ।’

इस चरित्र-निर्माणमें किञ्चिन्मात्र भी परतन्त्रता नहीं है । इसमें सब-के-सब स्वतन्त्र हैं, समर्थ हैं, योग्य है, अधिकारी हैं ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

–‘कल्याण-पथ’पुस्तकसे