चरित्रहीन मनुष्य पशुओं तथा नारकीय जीवोंसे भी नीचा है;
क्योंकि पशु और नारकीय जीव तो पहले किए हुए पाप-कर्मोंका फल भोगकर मनुष्यताकी तरफ
आ रहे हैं, पर चरित्रहीन मनुष्य पापोंमें लगकर पशुता तथा
नरकोंकी तरफ जा रहे है ! ऐसे
मनुष्यका संग भी पतन करनेवाला है । इसलिये कहा है–
बरु भल बास नरक कर ताता ।
दुष्ट संग जनि
देइ बिधाता ॥
(मानस ५/४६/४)
अतः अपना चरित्र सुधारनेके लिये भगवान्के
सम्मुख हो जायँ कि मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं । मैं संसारका नहीं हूँ,
संसार मेरा नहीं है ।
मनुष्यसे भूल यह होती है कि जो अपने नहीं हैं, उन सांसारिक
वस्तुओंको तो अपना मान लेता है और जो वास्तवमें अपने हैं, उन भगवान्को अपना नहीं
मानता । वास्तवमें
देखा जाय तो सदुपयोग करनेके लिये ही सांसारिक वस्तुएँ अपनी हैं और अपने-आपको
देनेके लिये ही भगवान् अपने हैं । कारण कि वस्तुएँ संसारकी हैं, इसलिये उन्हें
संसारकी सेवामें अर्पित करना है और मनुष्य स्वयं भगवान्का है, इसलिये स्वयंको भगवान्के
अर्पित करना है । न तो संसारसे कुछ लेना है और न भगवान्से ही कुछ लेना है । अगर
लेना ही है तो केवल भगवान्को ही लेना है ।
सांसारिक वस्तुओंकी कामनासे संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है ।
कामना ममतासे उत्पन्न होती है अर्थात् शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदिको अपना माननेसे
कामना उत्पन्न होती है । अब विचार करें कि जिन शरीर,
स्त्री, पुत्र, धन आदिको हम अपना मानते हैं, उनपर हमारा स्वतन्त्र अधिकार है क्या
? उनको जितने दिन चाहें, उतने दिन रख सकते हैं
क्या ? खुद उनके साथ सदा रह सकते हैं क्या ? अगर कहा जाय कि नहीं तो
फिर उनमें अपनापन छोड़नेमें क्या कठिनता है ? उनमें भूलसे माना हुआ अपनापन छोड़नेसे कामना
उत्पन्न नहीं होगी । कामना उत्पन्न न होनेसे भगवान्में स्वतः अपनापन होगा;
क्योंकि वे सदासे अपने हैं और नित्यप्राप्त हैं । भगवान्में अपनापन होनेसे
सब आचरण और भाव शुद्ध हो जायँगे ।
शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि पदार्थ सत् हैं या असत्
हैं–यह विकल्प तो हो सकता है, पर उनके साथ हमारा सम्बन्ध असत् है–इसमें संदेहकी सम्भावना ही
नहीं है । असत्को असत् जान लेनेपर असत्-सम्बन्धका त्याग सुगमतापूर्वक हो
जाता है और भगवान्की स्म्मुखता होनेपर भगवान्का
नित्य सम्बन्ध स्वतः जाग्रत् हो जाता है । फिर मनुष्यमें सच्चरित्रता स्वतः आ जाती है और वह चरित्र-निर्माणका आचार्य बन
जाता है अर्थात् उसका चरित्र दूसरोंके लिये आदर्श हो जाता है–
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
(गीता
३/२१)
‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, दूसरे
लोग भी (उसके आचरणोंको आदर्श मानते हुए) वैसा-वैसा ही आचरण करने लगते हैं; और वह
जो प्रमाण देता है, समस्त मनुष्यसमुदाय उसीके अनुसार बर्ताव करने लग जाता है ।’
इस चरित्र-निर्माणमें किञ्चिन्मात्र भी
परतन्त्रता नहीं है । इसमें सब-के-सब स्वतन्त्र हैं, समर्थ हैं, योग्य है, अधिकारी
हैं ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
–‘कल्याण-पथ’पुस्तकसे
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