।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७७ शुक्रवार
गीतामें चरित्र-निर्माण


पन्द्रहवें अध्यायमें भगवान्‌ने अपना विशेष प्रभाव बताया और कहा कि ‘क्षर (नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी जीव)–इन दोनोंसे उत्तम पुरुष मैं हूँ’ (१५/१६-१८) । जो मुझको पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वविद् है अर्थात् सब कुछ जाननेवाला है और सर्वभावसे मेरा भजन करता है । जो भगवान्‌का भजन करते हैं, उनमें दैवीसम्पत्ति स्वाभाविक प्रकट होती है । इसलिये सोलहवें अध्यायमें भगवान्‌ने दैवीसम्पत्तिका वर्णन किया । परन्तु जो भगवान्‌से विमुख होकर अपने ही शरीरको पुष्ट करना, भोगोंको भोगना और संग्रह करना चाहते हैं, उनमें आसुरी सम्पत्ति आती है । उस आसुरी सम्पत्तिका भगवान्‌ने सोलहवें अध्यायमें बहुत विस्तारसे वर्णन किया । दैवी सम्पत्तिसे मुक्ति होती है (१६/५) । आसुरी सम्पत्तिसे बन्धन होता है (१६/५), चौरासी लाख योनियोंकी प्राप्ति होती है (१६/१९) और नरकोंकी प्राप्ति होती है (१६/२०) ।

सत्रहवें अध्यायमें सात्त्विक, राजस और तामस–तीन प्रकारके भावोंका वर्णन किया । इसमें भी देखें तो संसारसे विमुख और परमात्माके सम्मुख होनेवालोंमें ही सात्त्विक भाव होते हैं । वे राजस और तामस भावोंसे ऊँचा उठ जाते हैं । परमात्माके लिये यज्ञ, तप, दान आदि कर्म सात्त्विक और मुक्ति देनेवाले हो जाते हैं (१७/२५) । परन्तु संसारके लिये अर्थात् मान, बड़ाई, सुख,आराम आदिके लिये तथा प्रमाद और मूढ़तापूर्वक किए हुए यज्ञ, तप, दान आदि कर्म राजसी-तामसी हो जाते हैं ।

अठारहवें अध्यायमें भगवान्‌ने संन्यास (सांख्ययोग) और त्याग- (कर्मयोग-) का विस्तारसे वर्णन किया । अन्तमें भगवान्‌ने यह निर्णय दिया कि सब धर्मोंका आश्रय छोड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जा–

सर्वधर्मान्  परित्यज्य     मामेकं   शरणं  व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
                                                                (१८/६६)

संसारके जितने काम हैं, जितनी सिद्धियाँ हैं, जितनी उन्नति है, वे सब-की-सब इस एक ही बात (शरणागति)-में आ जायँगी । भगवान्‌ कहते हैं कि जितने पाप हैं, दुर्गुण-दुराचार हैं, उनसे मैं मुक्त कर दूँगा । तू चिन्ता मत कर । मेरी कृपासे दैवी सम्पत्ति अपने-आप आ जायगी ।

जैसे बालक माँकी गोदीमें रहता है तो उसका स्वाभाविक ही पालन-पोषण एवं वर्धन हो जाता है, ऐसे ही एक प्रभुका आश्रय ले लिया जाय तो सब-के-सब सद्गुण-सदाचार बिना जाने ही आ जायँगे । अपने-आप ही चरित्र-निर्माण हो जायगा ।


इस तरहसे गीताभरमें देखा जाय तो एक ही बात है–परमात्माकी तरफ चलना अर्थात् परमात्माके सम्मुख होना । परमात्माकी ओर चलनेका उद्देश्य ही चरित्र-निर्माणमें हेतु है और संसारकी ओर चलनेका उद्देश्य ही चरित्र गिरनेमें हेतु है । सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छासे ही सब दुर्गुण-दुराचार आते हैं । सबसे अधिक पतन करनेवाली वस्तु है–रुपयोंका महत्त्व और आश्रय । इससे मनुष्यका चरित्र गिर जाता है । चरित्र गिरनेसे उसकी मनुष्योंमें निन्दा होती है, अपमान होता है ।