पन्द्रहवें अध्यायमें भगवान्ने अपना विशेष प्रभाव बताया और
कहा कि ‘क्षर (नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी जीव)–इन दोनोंसे उत्तम पुरुष मैं हूँ’
(१५/१६-१८) । जो मुझको पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वविद् है अर्थात् सब कुछ
जाननेवाला है और सर्वभावसे मेरा भजन करता है । जो भगवान्का
भजन करते हैं, उनमें दैवीसम्पत्ति स्वाभाविक प्रकट होती है । इसलिये
सोलहवें अध्यायमें भगवान्ने दैवीसम्पत्तिका वर्णन किया । परन्तु जो भगवान्से विमुख होकर अपने ही शरीरको पुष्ट करना, भोगोंको भोगना
और संग्रह करना चाहते हैं, उनमें आसुरी सम्पत्ति आती है । उस आसुरी
सम्पत्तिका भगवान्ने सोलहवें अध्यायमें बहुत विस्तारसे वर्णन किया । दैवी सम्पत्तिसे
मुक्ति होती है (१६/५) । आसुरी सम्पत्तिसे बन्धन होता है (१६/५), चौरासी लाख
योनियोंकी प्राप्ति होती है (१६/१९) और नरकोंकी प्राप्ति होती है (१६/२०) ।
सत्रहवें अध्यायमें सात्त्विक, राजस और तामस–तीन प्रकारके
भावोंका वर्णन किया । इसमें भी देखें तो संसारसे विमुख और परमात्माके सम्मुख होनेवालोंमें
ही सात्त्विक भाव होते हैं । वे राजस और तामस भावोंसे ऊँचा उठ जाते हैं ।
परमात्माके लिये यज्ञ, तप, दान आदि कर्म सात्त्विक और मुक्ति देनेवाले हो जाते हैं
(१७/२५) । परन्तु संसारके लिये अर्थात् मान, बड़ाई,
सुख,आराम आदिके लिये तथा प्रमाद और मूढ़तापूर्वक किए हुए यज्ञ, तप, दान आदि कर्म
राजसी-तामसी हो जाते हैं ।
अठारहवें अध्यायमें भगवान्ने संन्यास (सांख्ययोग) और
त्याग- (कर्मयोग-) का विस्तारसे वर्णन किया । अन्तमें भगवान्ने यह निर्णय दिया कि
सब धर्मोंका आश्रय छोड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जा–
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
(१८/६६)
संसारके जितने काम हैं, जितनी सिद्धियाँ हैं,
जितनी उन्नति है, वे सब-की-सब इस एक ही बात (शरणागति)-में आ जायँगी । भगवान् कहते
हैं कि जितने पाप हैं, दुर्गुण-दुराचार हैं,
उनसे मैं मुक्त कर दूँगा । तू चिन्ता मत कर । मेरी कृपासे दैवी सम्पत्ति अपने-आप आ
जायगी ।
जैसे
बालक माँकी गोदीमें रहता है तो उसका स्वाभाविक ही पालन-पोषण एवं वर्धन हो जाता है,
ऐसे ही एक प्रभुका आश्रय ले लिया जाय तो सब-के-सब सद्गुण-सदाचार बिना जाने ही आ
जायँगे । अपने-आप ही चरित्र-निर्माण हो जायगा ।
इस तरहसे गीताभरमें देखा जाय तो एक ही बात है–परमात्माकी
तरफ चलना अर्थात् परमात्माके सम्मुख होना । परमात्माकी ओर चलनेका उद्देश्य ही चरित्र-निर्माणमें हेतु है और संसारकी ओर
चलनेका उद्देश्य ही चरित्र गिरनेमें हेतु है । सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छासे ही सब
दुर्गुण-दुराचार आते हैं । सबसे अधिक पतन करनेवाली वस्तु है–रुपयोंका महत्त्व और
आश्रय । इससे मनुष्यका चरित्र गिर जाता है
। चरित्र गिरनेसे उसकी मनुष्योंमें निन्दा होती है, अपमान होता है ।
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