दसवें अध्यायमें अर्जुनके द्वारा प्रार्थना करनेपर भगवान्ने
अपनी विभूतियों और योगशक्तिका वर्णन किया ।
उसमें सार बात यह कही कि ‘मैं सब संसारमें व्यापक हूँ । जहाँ-जहाँ तुम्हें विशेषता
दीखे, वहाँ-वहाँ मेरे तेजके अंशकी ही अभिव्यक्ति जान’ (१०/४१) । विशेषता तो मेरे
कारणसे ही है । तात्पर्य है कि जहाँ जो कुछ विशेषता,
अधिकता, विलक्षणता दीखे, वहाँ भी भगवान्की तरफ वृत्ति जानी चाहिये । फिर
कहते हैं कि ‘तुझे बहुत जाननेसे क्या, मैं सम्पूर्ण संसारको एक अंशसे व्याप्त करके
स्थित हूँ’ (१०/४२) । ऐसी बात सुनकर अर्जुनने, जिसके एक अंशमें सब संसार है, वह
विश्वरूप देखना चाहा । उसे देखनेके लिये भगवान्ने अर्जुनको दिव्य चक्षु दिये ।[1] विश्वरूप देखकर अर्जुन
चकरा गये, भयभीत हो गये, मोहित हो गये । तब भगवान्ने कहा कि यह तेरी
मूर्खता है । मैं तो वही हूँ । फिर तू भयभीत क्यों होता है ?
बारहवें अध्यायमें अर्जुनने पूछा कि ‘जो ज्ञानमार्गसे चलते
हैं और जो भक्तिमार्गसे चलते हैं, उन दोनोंमें कौन श्रेष्ठ हैं ?’ भगवान्ने भक्तिमार्गसे चलनेवालोंको
श्रेष्ठ बताया (१२/२) ज्ञानमार्गमें तो स्वयं (अपने
बलपर) चलते हैं, पर भक्तिमार्गमें भगवान्के आश्रित हो जाते हैं । ज्ञानमार्गमें
तो दैवीसम्पत्तिके गुणोंका, विवेक-वैराग्य आदिका उपार्जन करना पड़ता है, पर
भक्तिमार्गमें प्रभुके चरणोंकी शरण होनेपर दैवीसम्पत्तिके सद्गुण-सदाचार स्वतः
स्वाभाविक आते हैं (१२/७) । इसलिये भगवान् कहते हैं कि ‘तू अपने मन-बुद्धि
मुझको ही दे दे, मेरे ही परायण हो जा ।’ ऐसे भगवत्परायण पुरुषके लिये भगवान् कहते
हैं कि वह मुझे बहुत प्यारा है । ऐसे तो संसारके सम्पूर्ण जीव भगवान्को प्यारे हैं, पर जो भगवान्के
शरण हो जाते हैं, वे भगवान्को बहुत प्यारे होते हैं । केवल भगवत्परायण होनेसे सद्गुण-सदाचार बिना कोई प्रयत्न किये
अपने-आप आ जाते हैं ।
तेरहवें अध्यायमें भगवान् ज्ञानका वर्णन करते हैं तो उसमें
अमानित्व आदि सद्गुणोंका वर्णन करते हुए अव्यभिचारिणी भक्तिकी बात कहते हैं–‘मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।’ (१३/१०) ।
चौदहवें अध्यायमें भी भक्तिकी बात कहते हैं कि ‘जो भक्तियोगके द्वारा मुझको भजता
है, वह तीनों गुणोंको अतिक्रमण कर जाता है’ (१४/२६) । गुणोंके संगसे ही आसुरी
सम्पत्ति आती है, जिससे ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म होता है ।[2] भगवान्की ओर चलनेसे उन गुणोंका अतिक्रमण हो जाता है ।
[1] भगवान्ने अर्जुनको विश्वरूप दिव्यदृष्टिसे अपने शरीरके एक
अंशमें दिखाया है, ज्ञानदृष्टिसे समझाया नहीं है । इस विषयमें भगवान्, अर्जुन और
संजय–तीनोंके वचन प्रमाण हैं; जैसे–भगवान् कहते हैं–‘इहैकस्थं
जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् । मम देहे गुडाकेश.....’(११/७); अर्जुन
कहते हैं–‘पश्यामि देवांस्तव देव देहे’ (११/१५),
और संजय कहते हैं–‘तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं
प्रविभक्तमनेकधा । अपश्यद् देवदेवस्य शरीरे......’ (११/१३) ।
[2] दैवी
और आसुरी सम्पत्तिके विस्तृत विवेचनके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित गीताकी हिन्दी-टीका
‘साधक-संजीवनी’ में सोलहवें अध्यायकी व्याख्या देखनी चाहिये ।
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