भगवान्की ओर चलनेमें स्मृतिकी बात मुख्य है । आठवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनके प्रश्न करनेपर भगवान्ने
कहा कि जो अन्त समयमें मेरा स्मरण करते हुए जाता है, वह
मुझको प्राप्त होता है–इसमें संदेह नही
(८/५) । कारण कि मनुष्य जिस-जिस भावको स्मरण करते हुए शरीरका त्याग करता है,
उस-उसको ही प्राप्त होता है (८/६) । इसलिये भगवान् कहते
हैं कि तू सब समयमें मेरा स्मरण कर–‘सर्वेषु कालेषु
मामनुस्मर’ (८/७) । फिर भगवान्ने विशेष बात बतायी कि जो निरन्तर मेरा
स्मरण करता है, उसके लिये मैं सुलभ हूँ–
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
(८/१४)
भगवान्का स्मरण करना दैवीसम्पत्तिका, सच्चरित्रताका वास्तविक मूल है । स्मरण करनेका
तात्पर्य है–भगवान्के साथ अपना जो वास्तविक सम्बन्ध है, उसको स्मरण करना कि मेरा
तो भगवान्के साथ ही वास्तविक सम्बन्ध है, संसारके साथ सम्बन्ध नहीं है । संसारके साथ सम्बन्ध केवल मान हुआ है, इसलिये यह सम्बन्ध
टिकता नहीं । प्रत्यक्ष देखते हैं कि इस जन्ममें जो सम्बन्धी हैं, वे पहले जन्ममें
नहीं थे और आगेके जन्ममें भी नहीं रहेंगे । अभी बाल्यावस्थामें भी जो दशा थी, वह
अभी नहीं रही और जो अभी है, वह आगे नहीं रहेगी । इस प्रकार संसार तो निरन्तर बदल
रहा है, पर परमात्मा वे ही हैं और ‘मैं’ (स्वयं) भी वही हूँ । इसलिये परमात्माके साथ मेरा
सम्बन्ध नित्य है । इस बातकी याद रहना ही स्मृति है । चिन्तन तो संसारका भी हो सकता है, पर स्मृति भगवान्की
ही होती है । ऐसी स्मृति रहनेसे सच्चरित्रता स्वतः आती रहती है ।
जो केवल
भगवान्की ओर चलता है, वह सबसे श्रेष्ठ हो जाता है । वेद, यज्ञ, तप, दान, तीर्थ, व्रत आदिसे जो लाभ होता है,
उससे अधिक लाभ भगवान्का उद्देश्य रखकर भगवान्की ओर चलनेवालेको होता है (८/२८) ।
इसलिये भगवान्की तरफ चलनेको सब विद्याओंका राजा, सब गोपनियोंका राजा, अति पवित्र,
अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त, करनेमें बड़ा सुगम और अविनाशी बताया गया
है (९/२) । भगवान् अपने-आपको इतना सुगम बताते हैं कि ‘जो भक्तिपूर्वक पत्र,
पुष्प, फल, जल आदि मेरे अर्पण कर देता है, उसका मैं भोजन कर लेता हूँ’ (९/२६) । ‘इसलिये
चलना-फिरना, खाना-पीना, सोना-जगना आदि सब कुछ मेरे अर्पण
कर दे तो सब पुण्यों और पापोंसे मुक्त होकर मुझको प्राप्त हो जायगा’ (९/२७-२८) ।
मनुष्य दुराचारी है या सदाचारी है–इसकी कोई चिन्ता नहीं । खास बात यह है कि वह भगवान्में लग जाय ।
भगवान्में लगनेपर उसका दुराचार टिक ही नहीं सकता । वह बहुत शीध्र
धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहनेवाली शाश्वती शान्तिको प्राप्त हो
जाता है (९/३०-३१) । ‘दुराचारी, पापयोनि (पशु आदि), स्त्री, वैश्य, शुद्र,
क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि किसी जाति, वर्ण, आश्रम, देश आदिका कोई क्यों न हो, भगवान्में
लग जाय तो उसको भगवान्की प्राप्ति हो जाति है’ (९/३२-३३) । जितनी जातियाँ, वर्ण
आदि हैं, उनमें बाहरसे तो प्रकृतिकी भिन्नता है, पर भीतरसे सब परमात्माके अंश हैं
। इसलिये संसारके व्यवहारमें तो अपने वर्ण आदिके अनुसार
चलनेकी मुख्यता है, पर पारमार्थिक मार्गमें वर्ण आदिकी मुख्यता नहीं है; क्योंकि
परमार्थरूपसे (परमात्माका अंश होनेसे) सबका स्वरूप शुद्ध है और सबका परमात्मापर
समानरूपसे अधिकार है । भगवान् कहते हैं कि ‘मेरा ही भक्त बन, मुझमें ही
मनवाला हो, मेरा ही पूजन कर, मेरेको ही नमस्कार कर’ (९/३४) । तात्पर्य है कि केवल
मेरी तरफ लग जा ।
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