यदि ध्यान दे तो यह प्रत्येक मनुष्यका अनुभव है
कि वह जितना-जितना नाशवान्की कामनाका त्याग करता है, उतनी-उतनी शान्ति, आनन्द,
समता, सद्गुण उसमें आते रहते हैं और जितनी-जितनी नाशवान् वस्तुओंकी कामना करता
है, उतनी-उतनी अशान्ति, विषमता, दुःख, सन्ताप, जलन, दुर्गुण आते हैं ।
छठे अध्यायमें भी परमात्मामें तत्परतासे लगनेकी बात कही है ।
वे परमात्मा सब जगह परिपूर्ण हैं । उन परमात्माको जो सब प्राणियोंमें देखता है और
सब प्राणियोंको परमात्माके अन्तर्गत देखता है, उससे परमात्मा अदृश्य नहीं होते और
वह परमात्मासे अदृश्य नहीं होता–
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति ॥
(६/३०)
जो मनुष्य दूसरोंके दुःख-सुखको अपने शरीरके दुःख-सुखके समान
समझता है, वह परमयोगी होता है–
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं व यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
(६/३२)
किसीको भी दुःख न पहुँचे–ऐसा जिसका भाव है, वह
परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है । सबका दुःख दूर कैसे हो ? सभी सुखी कैसे हो
जायँ ? ऐसे भाववालेका चरित्र सबसे ऊँचा होता है । आगे मनको वशमें करनेकी बात आयी तो अभ्यास और वैराग्यको
बताया (६/३५) अर्थात् वहाँ भी भगवान्की ओर लगाने और संसारसे हटानेकी बात कही ।
परलोकमें गतिके विषयमें भी यही बात है । जो परमात्माकी ओर चलता है, उसका साधन
बीचमें ही छूट जाय और वह मर जाय तो उसका भी उद्धार ही होता है, दुर्गति नहीं होती
(६/४०) । कल्याणकारी काम करनेवालेका काम अधूरा रहनेपर भी उसको लाभ ही होता है । जो
भगवान्में ही मन और बुद्धिको लगा देता है, वह योगियोंमें श्रेष्ठ योगी माना गया
है (६/४७) । भगवान्की ओर लगना ही श्रेष्ठता है ।
जो भक्ति नहीं करते, उनको भगवान् दुष्कृती बताते हैं
(७/१५) और जो भक्ति करते हैं, उनको सुकृति बताते हैं (७/१६) । तात्पर्य है कि परमात्माकी तरफ चलनेवाले सुकृति और संसारकी ओर चलनेवाले
दुष्कृती हैं । आगे बताया कि जिनके कर्म पवित्र
हैं, जिनका चरित्र बढ़िया है, वे दृढ़व्रत होकर भगवान्का भजन करते हैं
(७/२८) ।
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