।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७७ सोमवार
गीतामें चरित्र-निर्माण

एक मार्मिक बात है कि अविनाशीका लक्ष्य होनेसे विनाशी वस्तुएँ स्वतः आयेंगी । उनके लिये दुःख नहीं पाना पड़ेगा । परन्तु विनाशीका लक्ष्य होनेसे अविनाशी तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होगी और विनाशी वस्तुओंके लिये भी चिन्ता करनी पड़ेगी एवं परिश्रम होगा । आगे चलकर भगवान्‌ने कहा कि यदि स्वधर्मको देखें तो भी क्षत्रियके लिये धर्मयुक्त युद्ध करनेमें ही लाभ है (२/३१) । तात्पर्य है कि अपने कर्तव्यका पालन करनेसे ही मनुष्यकी उन्नति होती है और अकर्तव्यकी ओर जानेसे ही पतन होता है । कर्तव्य-पालनमें कामना, ममता और आसक्तिका त्याग मुख्य है । इनके त्यागका यह अभिप्राय है कि जड़का उद्देश्य नहीं रखना है । शरीर आदि वस्तुएँ पहले हमारी नहीं थीं, पीछे हमारी नहीं रहेंगी और अब भी प्रतिक्षण हमसे वियुक्त हो रही हैं । ऐसी जागृति रहेगी तो जड़का उद्देश्य नहीं रहेगा और स्वतः इन्द्रियोंका, अन्तःकरणका संयम होगा । संयममें ही चरित्र-निर्माण होता है । असंयमसे प्रवृत्तियाँ उच्छृंखल हो जाती हैं एवं उनसे चरित्र गिर जाता है ।

तीसरे अध्यायके आरम्भमें अर्जुन पूछते हैं कि मुझको धोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ? भगवान्‌ बताते हैं–ऊपरसे घोर कर्म दीखनेपर भी स्वार्थ, ममता, अहंता, कामनाका त्याग करके अपने कर्तव्यका पालन किया जाय तो वह घोरपना नहीं रहता, केवल क्रिया रहती है । क्रिया तो वर्ण और आश्रमके अनुसार तरह-तरहकी होती है, पर जो घोरपना, तीक्ष्णता, मलिनता, पतन करनेकी बात होती है, वह कामनाके कारण होती है । कामना रख करके पारमार्थिक ग्रन्थ पढ़े, दूसरोंको सुनायें तो (लक्ष्य पैसा आदि रहनेसे) आसुरी-सम्पत्तिसे, पापोंसे बच नहीं सकते; कहने-सुननेपर भी सच्‍चरित्रता आ नहीं सकती क्योंकि कामनासे सब पाप होते हैं (३/३७) । परन्तु परमात्माका लक्ष्य हो तो लौकिक कर्तव्य-कर्म करते हुए भी स्वतः सच्‍चरित्रता आ जाती है । इसीलिये तीसरे अध्यायमें भगवान्‌ने कामनाका त्याग कर कर्तव्य-कर्म करनेपर बहुत जोर दिया है । ऐसे ही चौथे अध्यायमें बताया कि जब अपनी कामना नहीं रहती, कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता, तब सब कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् कर्मोंको करते हुए भी मनुष्य बँधता नहीं; क्योंकि उसका उद्देश्य परमात्माकी ओर चलनेका है । पाँचवें अध्यायमें भी अपने कर्तव्यका पालन करनेकी बात बतायी–

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकिम् ।
अयुक्तः   कामकारेण   फले    सक्तो   निबध्यते ॥
                                                        (५/१२)


‘जो युक्त (योगी) होता है, वह कर्मफलका त्याग करके नैष्ठिकी, सदा रहनेवाली शान्तिको प्राप्त होता है और जो अयुक्त होता है अर्थात् जिसके मन-इन्द्रियाँ वशमें नहीं होते, वह कामनाके कारण फलमें आसक्त होकर बँध जाता है ।’ फल (पदार्थ) तो उत्पन्न और नष्ट होनेवाला है, पर उसमें जो कामना है, वही बन्धनका कारण है । कामनासे चरित्र गिरता है । चरित्र गिरनेसे अशान्ति पैदा हो जाती है और चरित्र-निर्माणसे शान्ति मिलती है । मनमें दुर्भाव उत्पन्न होते ही अशान्ति हो जाती है और सद्भाव होते ही शान्ति होने लगती है ।