।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ अमावस्या, वि.सं.२०७७ रविवार
अमावस्या, सूर्यग्रहण 
गीतामें चरित्र-निर्माण



मनुष्यशरीर केवल परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मिला है । इसीलिये एक परमात्मप्राप्तिका निश्चय हो जाय तो मनुष्य परमात्माके सम्मुख हो जाता है । परमात्माके सम्मुख होनेसे उसमें सद्‌गुण-सदाचार स्वतः आने लगते हैं, जिससे उसके चरित्रका ठीक निर्माण होने लगता है । परन्तु जब मनुष्य परमात्मप्राप्तिको भूलाकर सांसारिक पदार्थोंका संग्रह करने और भोग भोगनेमें लग जाता है, तब उसका चरित्र गिर जाता है । जिसका चरित्र नीचे गिर जाता है, वह मनुष्य कहलाने योग्य भी नहीं रहता ।

पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद ।
ते  नर  पाँवर  पापमय  देह  धरें  मनुजाद ॥
                                                   (मानस ७/३९)

भगवद्गीताका पूरा उपदेश चरित्र-निर्माणके लिये ही है । अर्जुनका भाव पहले युद्धका ही था, इसलिये उन्होंने भगवान्‌को युद्धके लिये आमन्त्रित करके उनको अपने सारथिके रूपमें स्वीकार किया और युद्धक्षेत्रमें युद्ध करनेके लिये तैयार भी हो गये । परन्तु भगवान्‌का विचार अर्जुनका उद्धार करनेका था । अर्जुनने कहा कि दोनों सेनाओंके बीचमें रथको खड़ा कीजिये; मैं देख लूँ कि मेरे साथ दो हाथ करनेवाला कौन है ? भगवान्‌ने वैसे ही दोनों सेनाओंके बीच रथको खड़ा करके कहा कि इन कुरुवंशियोंको देख (१/२१-२५) । कुरुवंशियोंको देखनेकी बात सुननेसे अर्जुनको शरीरकी प्रधानतावाला अपना कुटुम्ब याद आ गया । ये सब मर जायँगेइस विचारसे वे घबरा गये और अपने कर्तव्यसे विमुख होकर बोला कि मैं युद्ध नहीं करूँगा । कर्तव्यसे विमुख होना ही चरित्र-निर्माणमें बाधक होता है । भगवान्‌ने कहाअरे ! क्या करता है तू ? युद्ध करना तो तेरा कर्तव्य है । इसलिये मोह और कायरताको त्यागकर युद्धके लिये खड़ा हो जा (२/२-३) ।


मनुष्यको कर्तव्य-पथपर प्रवृत्त करनेके लिये ही भगवद्गीताका आविर्भाव हुआ है । अधिकार-त्यागपूर्वक अपने कर्त्वव्यका ठीक-ठीक पालन करनेसे ही चरित्र निर्माण होता है और कर्तव्यसे च्युत होनेसे ही चरित्रका नाश होता है । भगवान्‌ ‘न त्वेवाहं जातु नासं......’(२/१२)–यहाँसे उपदेशका आरम्भ करते हैं और पहले देह और देही, विनाशी और अविनाशीका विवेचन करते हैं । तात्पर्य यह है कि विनाशी वस्तुकी ओर ध्यान न देकर अविनाशीकी ओर ध्यान दिया जाय । ऐसा करनेसे चरित्र-निर्माण होता है ।