।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      पौष शुक्ल अष्टमी , वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें आये विपरीत क्रमका तात्पर्य



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(१०) अठारहवें अध्यायके पहले श्‍लोकमें अर्जुनने पहले संन्यासका और पीछे त्यागका तत्त्व जाननेके लिये पूछा; परन्तु उत्तरमें भगवान्‌ने पहले त्यागके विषयमें कहना शुरू किया । यह विपरीत क्रम क्यों ?

अठारहवें अध्यायके पहले भगवान्‌ने संन्यास शब्दका प्रयोग कर्मयोग (४ । ४१), ज्ञानयोग (५ । १३) और भक्तियोग (९ । २८; १२ । ६)‒तीनोंमें किया था; और त्याग शब्दका प्रयोग कर्मयोगमें किया था (२ । ४८; ४ । २०; ५ । ११ आदि) । अर्जुन संन्यास और त्याग‒दोनोंका तत्त्व जानना चाहते थे; परन्तु तीनों योगोंमें संन्यास’ पद आनेसे संन्यासका तत्त्व जानना अर्जुनके लिये जटिल हो गया । तात्पर्य है कि अर्जुनके मनमें संन्यासके विषयमें जितना अधिक संदेह था, उतना त्यागके विषयमें नहीं था । अतः अर्जुन मुख्यरूपसे संन्यासका ही तत्त्व जानना चाहते थे और त्यागका तत्त्व गौणतासे जानना चाहते थे । इसलिये भगवान्‌ने सूची-कटाहन्याय’[*] से पहले त्यागका वर्णन किया; क्योंकि त्यागके विषयमें भगवान्‌को थोड़ी ही बातें कहनी थीं, जबकि संन्यासके विषयमें बहुत बातें कहनी थीं, जिससे अर्जुनका संन्यास-विषयक संदेह दूर हो जाय ।

(११) गीतामें (७ । १२; १४ । ५‒१८, २२ आदि) सब जगह तीनों गुणोंका सात्त्विक, राजस और तामस’ऐसा क्रम दिया है; परन्तु अठारहवें अध्यायके सातवें श्‍लोकसे नवें श्‍लोकतक तामस, राजस और सात्त्विक‒ऐसा क्रम दिया है । यह विपरीत क्रम क्यों ?

इसका कारण है कि (१) अगर भगवान्‌ छठे श्‍लोकके बाद ही सातवें श्‍लोकमें सात्त्विक त्यागका वर्णन करते तो भगवान्‌के निश्‍चित मत और सात्त्विक त्यागमें पुनरुक्ति-दोष आ जाता; क्योंकि भगवान्‌का निश्‍चित मत और सात्त्विक त्याग एक ही है । (२) किसी वस्तुकी उत्तमता, श्रेष्ठता तभी सिद्ध होती है, जब उस वस्तुके पहले अनुत्तम, निकृष्ट वस्तुका वर्णन किया जाय । अतः सात्त्विक त्यागकी उत्तमता सिद्ध करनेके लिये भगवान्‌ पहले अनुत्तम तामस और राजस त्यागका वर्णन करते हैं । (३) आगे दसवेंसे बारहवें श्‍लोकतक सात्त्विक त्यागीका वर्णन हुआ है । अगर सात्त्विक त्यागका वर्णन सात्त्विक त्यागीके पास (नवें श्‍लोकमें) न देते तो तामस त्याग पासमें होनेसे सात्त्विक त्यागीके श्‍लोकोंका नवें श्‍लोकसे सम्बन्ध नहीं जुड़ता । इन सभी दृष्टियोंसे भगवान्‌ने यहाँ गुणोंका विपरीत क्रम रखा है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] किसीने लुहारके पास जाकर एक कड़ाह बनानेके लिये लोहा दिया । लुहार कड़ाह बनाने लगा । इतनेमें ही कोई सुई बनानेके लिये थोड़ा-सा लोहा लेकर लुहारके पास आ गया । लुहारने कड़ाह बनानेका बड़ा काम स्थगित कर दिया और सुई बनानेका छोटा-सा काम पहले कर दिया‒यही ‘सूचीकटाहन्याय’ कहलाता है ।