(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
(१६)
भूतकाल
और
भविष्यकालकी
घटना जितनी
दूर दीखती है,
उतनी ही दूर
वर्तमान भी
है । जैसे भूत और
भविष्यसे हमारा
सम्बन्ध
नहीं है, तो
फिर भूत
भविष्य और वर्तमानमें
क्या फर्क
हुआ ? ये तीनों
कालके अन्तर्गत
हैं, जबकि
हमारा
स्वरूप कालसे
अतीत है ।
कालका तो
खण्ड होता है,
पर स्वरूप (सत्ता)
अखण्ड है ।
शरीरको अपना
स्वरूप
माननेसे ही
भूत, भविष्य और
वर्तमानमें
फर्क दीखता
है ।
वास्तवमें
भूत, भविष्य
और वर्तमान
विद्यमान है
ही नहीं‒‘नासतो
विद्यते
भावः’ ।
(१७)
संसारमें
भाव और अभाव‒दोनों
दीखते हुए भी ‘अभाव’
मुख्य रहता
है ।
परमात्मामें
भाव और अभाव‒दोनों
दीखते हुए भी ‘भाव’
मुख्य रहता है
। संसारमें ‘अभाव’
के अन्तर्गत
भाव-अभाव हैं
और
परमात्मामें
‘भाव’ के
अन्तर्गत
भाव-अभाव हैं ।
दूसरे
शब्दोंमें,
संसारमें ‘नित्यवियोग’
के अन्तर्गत
संयोग-वियोग
हैं और
परमात्मामें
‘नित्ययोग’ के
अन्तर्गत
योग-वियोग (मिलन
-विरह) है । अतः
संसारमें
अभाव ही रहा
और
परमात्मामें
भाव ही रहा ।
(१८)
असत्का
भाव नहीं है
और सत्का
अभाव नहीं है;
अतः सत् स्वतः
विद्यमान है ।
जो स्वतः
विद्यमान है,
वही
परमात्मा
हैं । जो
पहले नहीं था,
पीछे नहीं
रहेगा और अभी नहींमें
जा रहा है, उसे
सत्ता देना,
महत्ता देना
और उससे
सम्बन्ध
जोड़ना ही खास
बाधा है । अतः
उसे सत्ता न
दे, महत्ता न
दे और उसीसे
सम्बन्ध न
जोड़े अर्थात्
उसे अपना न
माने । जिसका कभी
अभाव नहीं
होता, उसको ही
सत्ता दे,
उसको ही महत्ता
दे और उसीको
अपना माने ।
जो नहीं है,
उसका
महत्त्व
कैसा ?
महत्त्व तो उसीका
है, जो है और
वही अपना है ।
जो
नहीं है, उससे
तटस्थ,
बेपरवाह,
निर्लेप, निरपेक्ष,
उदासीन,
विमुख होना
है; उससे
चिपकाना नहीं
है । वास्तवमें
हम असत् (वस्तु,
व्यक्ति और
क्रिया) से
निर्लेप हैं;
क्योंकि हम
उसके
भाव-अभावको, उत्पत्ति-विनाशको,
संयोग-वियोगको
और आदि-अन्तको
जानते हैं । इस प्रकार
अपनेको
निर्लेप अनुभव
करके चुप हो जायँ
अर्थात् चुप
होकर स्थित
रहें तो
स्वतःसिद्ध
सत्ता (सत्-तत्त्व)
का स्पष्ट
अनुभव हो
जायगा । वास्तवमें
सत्-तत्त्व
स्वतःसिद्ध
है, केवल असत्से
विमुख होना
है । अगर हम असत्को
अस्वीकार कर
दें तो वह
रहेगा ही
नहीं;
क्योंकि वह
है ही नहीं,
उसमें
रहनेकी ताकत
ही नहीं है‒‘नासतो
विद्यते
भावः’ ।
श्रीमद्भागवतमें
आया है‒‘अतत्त्यजन्तो
मृगयन्ति सन्तः’
(१०/१४/२८) ‘सन्तलोग
संसारका
त्याग करते
हुए
परमात्मतत्त्वकी
खोज करते हैं ।’ खोजनेसे
वह चीज मिलती
है, जो पहले ही
मौजूद हो ।
उसको
खोजनेका
उपाय है‒जो
मौजूद नहीं
है, उसको
छोड़ते जाना ।
छोड़नेका
तात्पर्य है‒उसकी
सत्ता और
महत्ता न
मानना तथा
उससे अपना
सम्बन्ध न
मानना, उसको अस्वीकार
करना ।
नारायण
!
नारायण !!
नारायण !!!
‒ ‘अमरताकी
ओर’
पुस्तकसे
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