(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
ऐसा
हो गया तो
वाह-वाह, ऐसा
नहीं हुआ तो
वाह-वाह !
जीवन्मुक्त
हो जाओगे ! ‘सोऽमृततत्वाय
कल्पते’ (गीता
२/१५)‒परमात्मप्राप्तिकी
सामर्थ्य आ
जायगी । महान्
शान्ति, महान्
आनन्द
अपने-आप
आयेगा । अपने
उद्योगसे
किया हुआ ठहरता
नहीं और
अपने-आप आया
हुआ जाता
नहीं ।
लोगोंकी
दृष्टिमें
हम महात्मा,
जीवन्मुक्त बन
जायँगे और
अपनी
दृष्टिमें महान्
शान्तिको
प्राप्त हो जायँगे
। लोक और
परलोक दोनों
सुधर जायँगे ।
इतनी-सी बात
है कि अपना
कोई संकल्प न
रखें । यही
वास्तवमें
त्याग है ।
संसारकी
वस्तुओंका
त्याग असली
त्याग नहीं है
। अगर
संसारकी
वस्तुओंका
त्याग ही
त्याग हो तो मरनेवाले
सब त्यागी ही
होते हैं !
शरीरको नहीं
पूछते, धनको
नहीं पूछते,
कुटुम्बको
नहीं पूछते ! न
तार है, न
चिठ्ठी है, न
समाचार है !
पीछे आकर
पूछते ही नहीं
कि कौन कैसा
है ? पूरा
त्याग कर
दिया तो मुक्ति
हो जानी
चाहिये ?
परन्तु वस्तुओंके
छूटनेसे
मुक्ति नहीं
होती, मनका संकल्प
छोड़नेसे
मुक्ति हो
जाती है ।
स्फुरणा
तो आती-जाती
रहती है ।
जैसे, वायु
आयी और चली
गयी, ठण्डी
आयी और चली
गयी, गरमी आयी
और चली गयी,
वर्षा आयी और
चली गयी, आँधी
आयी और चली गयी,
ऐसे ही स्फुरणा
आयी और चली
गयी । उसको
पकड़ो मत तो वह
अपने-आप मिट
जायगी ।
परन्तु उसको
पकड़ लोगे तो
वह संकल्प हो
जायगा और
संकल्पसे
कामना पैदा
हो जायगी । स्फुरणासे
कामना पैदा
नहीं होती ।
चलते-चलते
रास्तेमें
वृक्ष दीख
गया, पत्थर दीख
गया तो दीख
गया, पर जहाँ
मनमें आया कि
यह पत्थर तो
बहुत बढ़िया
है, वहाँ मन
चिपक जायगा ।
वह संकल्पका
रूप धारण कर
लेगा । आप छोड़ना
चाहो तो वह
छूट जायगा,
इसमें
परवशता नहीं
है ।
संकल्पके
दो भाग हैं, एक
तो आवश्यक
संकल्प है और
एक अनावश्यक
संकल्प है ।
जैसे,
शरीर-निर्वाहके
लिये अन्न, जल,
वस्त्रकी
आवश्यकता
मनमें पैदा
होती है तो यह
आवश्यक
संकल्प है; और
बैठे-बैठे
यों ही मनमें
विचार किया
कि यह होना चाहिये,
यह नहीं होना
चाहिये तो यह
अनावश्यक
संकल्प है ।
आवश्यकता तो
पूरी होगी, पर
अनावश्यकता
कभी पूरी
नहीं होगी । आप संकल्प
करो तो
आवश्यकता
पूरी हो
जायगी और संकल्प
न करो तो
आवश्यकता
पूरी हो
जायगी ।
संकल्प
करनेपर
आवश्यकता
पूरी होगी तो
अभिमान आ
जायगा । परन्तु
बिना संकल्प
किये
आवश्यकता
पूरी होगी तो
अभिमान नहीं
आयेगा ।
शुभ
काम करनेका
संकल्प हो
जाय तो उसको
जल्दी शुरू
कर देना
चाहिये‒‘शुभस्य
शीघ्रम्’ ।
फिर करेंगे‒यह
नहीं होना
चाहिये ।
समयका पता
नहीं है । काल
सबको खा जाता
है । अच्छा
विचार हो तो
काल खा जायगा
और बुरा
विचार हो तो
काल खा जायगा ।
यदि
मनमें बुरा
विचार आ जाय
तो ‘थोड़ा ठहरो,
थोड़ा ठहरो’
ऐसा होनेसे
फिर वह नहीं
रहेगा और
अच्छा विचार
आ जाय तो ‘फिर
करेंगे, फिर
करेंगे’ ऐसा
होनेसे फिर
वह नहीं
रहेगा, काल
उसको खा जायगा
। शुभ अथवा अशुभ
काममें देरी
करनेसे वैसा
भभका नहीं
रहता, कमजोर
होकर मिट
जाता है ।
श्रोता‒स्वाभाविक
शान्ति कैसे
बनी रहे ?
स्वामीजी‒अपना
संकल्प छोड़
दो तो
अशान्ति
रहेगी ही
नहीं । अपना
कोई संकल्प
मत रखो तो
शान्तिके
सिवाय क्या
रहेगा ? केवल
शान्ति,
शुद्ध
शान्ति
रहेगी । अपना
संकल्प ही अपनेको
दुःख देता है,
और कोई दुःख
देनेवाला
नहीं है । विपरीत-से-विपरीत
परिस्थिति आ
जाय, बीमारी आ
जाय, धन चला
जाय, बेटा मर जाय
आदि जो
होनेवाला है,
वह होगा और
होकर मिट जायगा
। या तो वह मिट
जायगा या
शरीर मिट
जायगा । यह
रहेगा नहीं,
पक्की बात है ।
उत्पन्न
होनेवाली
मात्र वस्तु
नष्ट होनेवाली
है । इसलिये
किसी
संकल्पको
पकड़े ही नहीं
तो शान्तिकी
प्राप्ति हो
जायगी ।
नारायण
!
नारायण !!
नारायण !!!
‒ ‘नित्ययोगकी
प्राप्ति’
पुस्तकसे
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