(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
चाहे
संसारके
संकल्पमें अपना
संकल्प मिला
दो, चाहे
प्रभुके संकल्पमें
अपना संकल्प
मिला दो, चाहे
प्रारब्धमें
अपना संकल्प
मिला दो ।
जैसा होना है,
वैसा हो जायगा;
कूदाकूदी
क्यों करो ! अपने सब
संकल्प छोड़
दो तो जीवन महान्
पवित्र हो
जायगा । जो
अपने-आप होता
है, उसमें
अपवित्रता
नहीं आती, वह
ठीक ही होता
है । संसारके
संकल्पसे
होगा तो ठीक
होगा, भगवान्के
संकल्पसे
होगा तो ठीक
होगा,
प्रारब्धसे
होगा तो ठीक
होगा । बेठीक
होगा ही नहीं ।
बेठीक तो
हम कर लेते
हैं । अपना
संकल्प कर
लेते हैं तो
बेठीक हो
जाता है ।
एक
स्फुरणा
होती है और एक
संकल्प होता
है । कोई
बात याद आती
है‒यह ‘स्फुरणा’ है और ऐसा
होना चाहिये,
ऐसा नहीं
होना चाहिये‒यह
‘संकल्प’ है । संसारकी
स्फुरणा
होती रहती है
और मिटती
रहती है । आप
जिस स्फुरणाको
पकड़ लेते हो,
वह संकल्प हो
जाता है ।
संकल्पमें
मनुष्य बँध
जाता है‒‘फले
सक्तो
निबध्यते’ (गीता
५/१२) ।
संकल्पसे
कामना पैदा
हो जाती है‒ ‘संकल्पप्रभवान्कामान्’
(गीता ६/२४), जो
सम्पूर्ण
पापों और दुःखोंकी
जड़ है । जो सब संकल्पोंका
त्याग कर
देता है, वह
योगारूढ़ हो
जाता है ।
कितनी सीधी-सरल
बात है ! इसमें
बेठीक होगा
ही नहीं ।
आप
कितना ही ठीक
समझो या
बेठीक समझो;
जो होना है, वह
होगा ही । जो
अनुकूल या
प्रतिकूल
होनेवाला है,
वह तो होगा ही ।
सर्दी आनी है
तो आयेगी ही,
गर्मी आनी है
तो आयेगी ही ।
आप सुख-दुःखी हो
जाओ तो आपकी
मरजी ! वह आपके
सुख-दुःखके
अधीन नहीं है ।
इस तरह
अपने-अपने
प्रारब्धका
फल आयेगा ही ।
आप सुखी हो
जाओ तो आयेगा, दुःखी
हो जाओ तो आयेगा
। एकदम सच्ची
बात है ! जो
नहीं होना है,
वह नहीं होगा ।
जो होना है, वह
हो जायगा । जो
होगा, वह हम
अपने-आप देख
लेंगे । वह
कोई छिपा
थोड़े ही
रहेगा ! अतः
चतुर वही है,
जो अपना कोई
संकल्प नहीं
रखता । सीधी-सादी
बात है, अपना
संकल्प न रखे
तो निहाल हो
जाय आदमी ! क्यों
संकल्प रखे
और क्यों
दुःख पाये !
अपने
अनुकूलमें
राजी होना और
प्रतिकूलमें
नाराज होना‒ये
दोनों ही
व्यथा हैं । भगवान्
कहते हैं कि ‘इन्द्रियोंके
जो विषय हैं,
वे अनुकूलता
और प्रतिकूलताके
द्वारा
सुख-दुःख
देनेवाले
हैं । वे
आने-जानेवाले
और अनित्य
हैं । उनको
तुम सह लो ।
सुख-दुःखमें
सम रहनेवाले
जिस धीर
मनुष्यको वे
व्यथा नहीं
पहुँचाते,
हलचल पैदा
नहीं करते, वह
मुक्तिका
पात्र हो
जाता है, उसका
कल्याण हो
जाता है (गीता
२/१४-१५) ।
गुणोंका जो संग
है,
वृत्तियोंके
साथ जो
आसक्ति है, बस,
यही ऊँच-नीच
योनियोंमें
जन्म लेनेका
कारण है‒‘कारणं
गुणसंगोऽस्य
सदसद्योनिजन्मसु’
(गीता १३/२१) ।
संकल्प
मिट जाता है ।
कभी पूरा
होकर मिट
जाता है, कभी न
पूरा होकर
मिट जाता है ।
पूरा होना है
तो पूरा होकर
मिट जायगा,
पूरा नहीं
होना है तो
ऐसे ही मिट
जायगा । यह तो
मिटनेवाली
चीज है‒‘आगमापायि-नोऽनित्याः’ । इसको तो सह
लो, बस‒‘तांस्तितिक्षस्व’
(गीता २/१४) ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी
प्राप्ति’
पुस्तकसे
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